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________________ [समराइच्चकहा विखुमलयायंबहत्थपल्लवा उव्वेल्लंतकोमलतणुबाहुलया रंभाखंभमणहरोरुजुयला थलकमलारत्तकोमलचलणजुयला उज्जाणदेवय व्व उउलच्छिपरियरिया नियमाउलगस्स चेव महासामंतस्स लच्छिकताभिहाणस्स धूया सहियणसहिया वसंतकीलमणुहवंती कुसुमावली नाम कन्नगा। तओ तं दणमणंतभवभत्थरागदोसेण साहिलासं पुलोइया । दिट्ठोवि य एसो वि तीए तओ विभागाओ तस्स भमेण चेव तुरियतुरियमोसरंतीए कुसुमावलीए । चितियमिमीए- कहं कोलासुंदरुज्जाणस्स रम्मयाए भयवं मयरद्धओ वि एत्थेव कोलासुहमणुहवइ ति। एत्यंतरम्मि भणिया पियंकराभिहाणाए चेडीए। सामिणि ! अलं अलमोसक्कणेण ; एसो खु राइणो पुरिसदत्तस्स पुत्तो तुह चेव पिउच्छागठभसंभवो सोही नाम कमारो त्ति। पढमोगमणकयपरिग्गहं च सामिणि एवमोसकमाणि पेच्छिय मा अदक्खिण्णं ति संभाविस्सइ। ता चिहि यउ इहं, कीरउ इमस्स महाणुभावस्स रायकन्नोचिओ उबयारो । तओ हरिसवसपुलइयंगीए सविरुभमं साहिलासं च अवलोइऊण कुमारं भणियं इमीए। मधुकरावली विद्रुमलताताम्रहस्तपल्लवा उद्वेल्लत्कोमलतनुबाहुलता रम्भास्तम्भमनोहरोरुयुगला स्थलकमलारक्तकोमलचरणयुगला उद्यानदेवता इव ऋतुलक्ष्मीपरिचरिता निजमातुलकस्यैव महासामन्तस्य लक्ष्मीकान्ताभिधानस्य दुहिता सखीजनसहिता वसन्तक्रीडामनुभवन्ती, कुसुमावली नाम कन्यका । ततस्तां दृष्ट्वा अनन्त भवाभ्यस्त रागदोषेण साभिलाषं दृष्टा । दृष्टश्च एषोऽपि तया ततो विभागात् तस्य भ्रमेणैव त्वरितत्वरितमपसरन्त्या कुसुमावल्या। चिन्तितमनया- कथं क्रीडासुन्दरोद्यानस्य रम्यतया भगवान् मकरध्वजोऽपि अत्रैव क्रीडासुखमनुभवतीति । अत्रान्तरे भणिता प्रियङ्कराभिधानया चेट्या। स्वामिनि ! अलं अलमवष्वस्कनेन (अपसरणेन) ; एषः खलु राज्ञः पुरुषदत्तस्य पुत्रः तवैव पितृष्वसृगर्भसम्भवः सिंहो नाम कुमार इति । प्रथमागमनकृतपरिग्रहां च स्वामिनी एवमवष्वस्कन्ती (अपसरन्ती) दृष्ट्वा मा अदाक्षिण्यामिति सम्भावयिष्यति । तावत् तिष्ठतु इह, क्रियतामस्य महानुभावस्य राजकन्योचितोपचारः । ततो हर्षवशपुलकिताङ्गया सविभ्रमं साभिलाषं च अवलोक्य कुमारं भणितमनया। सखि ! प्रियङ्करिके ! त्वमेवात्र कुशलाः कसमावली नामक कन्या को देखा । वह समीपवर्ती स्थान में ही स्थित थी। फूलों की सुगन्धि से सुगन्धित भौंरों के समूह के समान उसकी चोटी थी। मुंगे के समान ताम्रवर्ण वाले उसके हस्तपल्लव थे। हिलती-डुलती कोमल और पतली उसकी भुजलताएं थीं। केले के स्तम्भ के समान उसकी दो मनोहर जंघाएँ थीं। स्थलकमल के समान लाल और कोमल उसके दोनों चरण थे। ऋतुरूपी लक्ष्मी से घिरी हुई उद्यानदेवी के समान अपने ही मामा महासामन्त लक्ष्मीकान्त की बेटी (कुसुमावली) सखियों के साथ वसन्त क्रीड़ा का अनुभव कर रही थी। अनन्तभवों के रागरूपी अभ्यास के दोष से उसे देखकर उसने अभिलाषायुक्त होकर देखा। उसने भी भ्रम से जल्दी-जल्दी पीछे हटते हुए उधर से उसकी ओर देखा। उसने विचार किया-क्या बात है कि क्रीडासुन्दर उद्यान की रमणीयता से (प्रभावित होकर) भगवान् कामदेव भी यहीं क्रीड़ासुख का अनुभव करते हैं ! इसी बीच प्रियङ्करा नामक दासी ने कहा, "स्वामिनि ! आगे मत बढो, आगे मत बढ़ो ! यह राजा पुरुषदत्त का पुत्र आप के ही पिता की बहन के गर्भ से उत्पन्न सिंह नाम का कुमार है। आप यहां पहले से आयी हुई हैं, आपको वापस जाते देखकर ये कहीं अशिष्टता न समझें। मतः यहीं ठहरिए और इन महानुभाव का राजकन्या के योग्य सत्कार कीजिए। तब हर्ष के वशीभूत होकर www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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