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[समराइच्चकहा
तस्स जहाकयं पइन्नमणु पालिन्तस्स अइक्कंता बहवे पुव्वलक्खा । तवोवणासन्नवसंतउर-निवासिणो य लोयस्स गुणराइणो जाओ तं पइ अईव भत्तिबहुमाणो । अहो ! अयं महातवस्सी इहलोयनिप्पिवासो, सरीरे वि दढमप्पडिबद्धो, एयस्स सफलं जीवियं ति । भणियं च
जणपक्खवायबहुमाणिणा वि जत्तो गुणेसु कायव्वो।
आवज्जति गुणा खलु अबुहं पि जणं अमच्छरियं ॥४६॥ इओ य पुण्णचंदो राया कुमारगुणसेणं कयदारपरिग्गहं रज्जे अभिसिंचिऊण सह कुसुइणीए देवीए तवोवणवासी जाओ। सो य कुमारगणसेणो अणेयसामंतपणिवइयचलणजुयलो, निज्जियनियमंडलाहियाणेगमंडलो, दसदिसि विसट्टनिम्मलविस्सुयजसो, धम्मत्थकामलक्खणतिवग्गसंपायगरओ महाराया संवुत्तो त्ति । अन्नया य कालक्कमेणेव जहासुहं सयलजणसलाहणिज्जं सह वसंतसेणाए महादेवीए रज्जसोक्खं अणुहवंतो आगओ वसंतउरं, पविट्ठो य महामगलोवयारेणं, पूजिओ
ज्ञस्य तस्य यथाकृतां प्रतिज्ञामनपाल यतो तिक्रान्तानि बहनि पूर्वलक्षाणि । तपोवनासन्त वसन्तपुरनिवासिनश्च लोकस्य गुणरागिणो जातस्तं प्रति अतीव भवितबहुमानः । अहो ! अयं महातपस्वी इहलोकनिष्पिपासः शरीरेऽपि दृढमप्रतिबद्धः एतस्य सफलं जीवितमिति । भणितं च
जनपक्षपातबहुमानिनाऽपि यत्नो गुणेषु कर्त्तव्यः ।
आवर्जयन्ति गुणाः खलु अबुधमपि जनममात्सर्यम् ॥४६॥ इतश्च पूर्णचन्द्रो राजा कुमारगुणसेनं कृतदारपरिग्रहं राज्येऽभिषिच्य सह कुमुदिन्या देव्या तपोवनवासी जातः । स च कुमारगुणसेनोऽनेकसामन्तप्रणिपतितचरणयुगलः निजितनिजमण्डलाधिकानेकमण्डलः दशदिशि-विकसितनिर्मलविश्रुतयशाः, धर्माऽर्थकामलक्षणत्रिवर्गसम्पादनरतो महाराजः संवृत्त इति। अन्यदाच कालक्रमेणैव यथा सुखं सकलजनश्लाघनीयं सह वसंतसेनया महादेव्या राज्यसौख्यमनुभवन् आगतो वसंत पुरम्, प्रविष्टश्च महामङ्गलोपचारेण, प्रविष्टश्च
लाख पूर्व निकल गये। तपोवन के समीप वसन्तपुर के निवासियों तथा गुणों के प्रति प्रेम रखने वाले लोगों में उसके प्रति अत्यन्त भक्ति और सम्मान उत्पन्न हो गया। आश्चर्य की बात है-यह तपस्वी इस लोक की तृष्णा से रहित है और शरीर में भी इसकी आसक्ति नहीं है। इसका जीवन सफल है। कहा भी है--
___मनुष्यों में पक्षपात के कारण बहुत सम्मान प्राप्त करने वाले व्यक्ति को भी गुणों के प्रति यत्न करना चाहिए । गुण अज्ञानी व्यक्तियों में भी अमात्सर्य ला देते हैं ।।४६॥
इधर पूर्णचन्द्र नाम का राजा कुमार गुणसेन को, जिसका विवाह हो गया था, राज्य पर अभिषिक्त कर देवी कुमुदिनी के साथ तपोवनवासी हो गया । कुमार गुणसेन, जिनके चरणयुगल की अनेक सामन्त वन्दना करते थे, अपने देश से भी अधिक अनेक देशों को जिन्होंने जीत लिया था, जिसका प्रसिद्ध और निर्मल यश दणों दिशाओं में फैल रहा था; धर्म, अर्थ और काम जिसका लक्षण है ऐसे त्रिवर्ग के सम्पादन में रत हो 'महाराज' बन गये। एक बार कालक्रम से सुख का अनुभव करते हुए, समस्त लोगों द्वारा प्रशंसनीय होकर, वसन्तसेना नामक महारानी के साथ राज्यसुख का अनुभव करते हुए 'वसन्तपुर' आये । महान् मांगलिक क्रियाकलाप के साथ वहाँ प्रविष्ट हुए। नगरनिवासी जनों ने उनकी पूजा की। उसके साथ वह वर्षाऋतु की लीला के समान शोभायमान
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