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________________ पढमो भवो] य पउरेहि, गओ समं तेहिं पाउसलीलावलंबिसोहियं विमाणच्छंदयं नाम पासायं, जत्थ मेहदुण्णिच्छायाणुयारिणीओ बहलकालागरुधमसंतईओ, सोयामणीओ विव विहायंति रयणावलीओ, जलधाराओ विव दीसंति मुत्तावलीओ बलायापंतियाओ विव विहायंति चमरपंतियाओ इंदाउहच्छायावहारिणीओ पलंबियाओ पट्टसुयमालाओ, गंधोयगावसेयसुरभिगंधाभूमिभागा, रुंटत'महुयरकुलाउलावइण्णा' पुष्फोवयारा । किं बहुणा जंपिएणं पुरिसाण मोहनिद्दासुत्ताण वि सिमिणयं पिव कहेइ । पुव्वि कयाण वियडं फलं च जो भागधेयाणं ॥४७॥ तत्थ य जहाणुरूवं पउरजणं सम्माणेऊण विसज्जिएसु तेसु, विविहणाडयच्छन्दनट्टियाइणा मणहरेण विणोएण विगमिऊण तं अहोरत्तं बिइयदिवसम्मिय संपाइयसयलगोसकिच्चो उचियवेलाए चेव निग्गओ वाहियालि । परिवाहिया य तेणं बहवे बल्हीयतुरुक्क वज्जराइया आसा। तज्जणियखेयावणयणनिमित्तं च उवविट्ठो वाहियालीतडनिविट्ठ सहस्सम्बवणुज्जाणे । एत्थंतरम्मि गहियनारंगपौरैः गतः समं तैः प्रावृड्लीलावलम्बिशोभितं विमानच्छन्दकं नाम प्रासादम्, यत्र मेघदुर्दिनच्छायानुकारिण्यो बहलकालागरुधूमसन्ततयः सौदामिन्य इव विभान्ति रत्नावल्यः, जलधारा इव दश्यन्ते मुक्तावल्यः, बलाकापङ्क्तप इव विभान्ति चामरपङ्क्तिका: इन्द्रायुधच्छायापहारिणाः प्रलम्बिता: पट्टांशुकमालाः, गन्धोदकासेकसुरभिगन्धा भूमिभागाः रटन्मधुकरकुलाकुलावतीर्णाः पुष्पोपचाराः । किंबहुना जल्पितेन पुरुषाणां मोहनिद्रासुप्तानामपि स्वप्नमिव कथयति । पूर्व कृतानां विकटं फलं च यो भागधेयानाम् ॥४७॥ तत्र च यथानुरूपं पौरजनं सम्मान्य, विसजितेषु तेषु विविधनाटकच्छन्द-नतितादिना मनोहरेण विनोदेन विगम्य तद् अहोरात्रम्, द्वितीय दिवसे च सम्पादितसकलगोस (प्रभात)-कृत्यः उचितवेलायां चैवनिर्गतो बाह्यालिम् । परिवाहिताश्च तेन बहवो बालीक-तुरुष्क-वज्जरादिका अश्वा । तज्जनितखेदापनयननिमित्तं च उपविष्टो बाह्यालीतटनिविष्टे सहस्राभ्र वनोद्याने । अत्रान्तरे गहीतनाराजविमानच्छन्दक नामक महल में गये, जहाँ अत्यधिक कालागरु के धूम की परम्परा वर्षाकालीन मेघ की छाया का अनुसरण कर रही थी, रत्नों की पंक्तियाँ बिजलियों के समान शोभायमान हो रही थीं, मोतियों की मालाएँ जलधारा के समान दिखाई दे रही थीं, चैवरों की पंक्तियाँ बगुले की पंक्तियों के समान शोभित हो रही थीं, लटके हुए रेशमी वस्त्रों की पंक्तियाँ इन्द्रायुध की छाया का अपहरण कर रही थीं, भूमिभाग गन्धोदक के सींचने से सुगन्धित हो रहा था तथा गुंजायमान भौरों के समूह से पुष्पोपचार व्याप्त थे । अधिक कहने से क्या भाग्यशाली ब्यक्तियों के पूर्वकृत कर्मों का जो विकट फल है उसे यह (प्रासाद) महानिद्रा में सोये हुए मनुष्यों के स्वप्न के समान कथन कर रहा था ॥४७।। ___ वहाँ पर यथानुरूप नगरवासियों को सम्मानित करके, उन्हें विदा कर, अनेक प्रकार के नाटक, काव्य, नत्य आदि मनोहर विनोदों के साथ एक दिन-रात्रि व्यतीत की। दूसरे दिन प्रातःकालीन समस्त कृत्यों को कर, उचित समय पर अश्वीडन स्थान की ओर निकले । वहाँ उसने अनेक बाह्नीक, तरुष्क तथा वज्जरादिक घोडों को चलाया । घोड़ों को चलाने से उत्पन्न थकावट को दूर करने के लिए (वह) अश्दक्रीडन भूमि के तट पर बने १. पंढत, २. कुलाउलावइण्णा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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