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________________ [ समराइच्चकहा कढिणया आगया दुवे तावसकुमारया। विट्ठो य णेहि राया, अभिणंदिओ य ससमयपसिद्धाए आसीसाए.। अब्भुट्ठाणासणपयाणाइणा उवयारेण बहुमन्निया य राइणा । भणियं च णेहि-महाराय ! सुगिहीयनामधेएण अम्हे कुलवइणा भवओ चउरासमगुरुस्स, सुकयधम्माधम्मववत्थस्स सरीरपउत्तिपरियाणणनिमित्तं पेसिया । एवं सोऊण संपयं तुमं पमाणं ति। राइणा भणियं-कहिं सो भयवं कुलवइ ति। तेहिं भणियं-इओ नाइदूरे सुपरिओसनामे तवोवणे त्ति । तओ य सो राया भत्तिकोउगेहिं गओ तं तवोवणं ति दिट्ठा य तेणं तत्थ बहवे तावसा कुलवई य । तओ संजायसंवेगेणं जहारिहमभिवंदिया। उवविट्ठो कुलवइसमीवे, ठिओ य तेण सह धम्मकहावावारेण कंचि कालं । तओ भणिओ य गेण सविणयं पणमिऊण भयवं कुलवई । जहा करेहि मे पसायं सयलपरिवारपरिगओ मम गेहे आहारगहणणं । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! एव । किंतु एगो अग्गिसम्मो नाम महातावसो, सो य न पइदियहं भुंजइ, किं तु मासाओ मासाओ, तत्थ विय पारणगदिवसे पढमपविट्ठो पढमगेहाओ चेव लाभे वा अलाभे वा नियत्तइ, न गेहन्तरमुवगच्छइ । ता कठिनको आगतौ द्वौ तापसकमारकौ । दृष्टश्च आभ्यां राजा, अभिनन्दितश्च स्वसमयप्रसिद्धया आशिषा । अभ्युत्थानासनप्रदानदिनोपचारेण बहुमानितौ च राज्ञा। भणितं चाभ्याम्-महाराज ! सुविहतनामधेयेन आवां कुलपतिना भवतः चतुराश्रम गुरोः सुकृतधर्माधर्मव्यवस्थस्य शरीरप्रवृत्तिपरिज्ञाननिमित्तं प्रेषितौ । एवं श्रुत्वा साम्प्रतं त्वं प्रमाणमिति । राज्ञा भणितम्-कुत्र स भगवान कुलपतिः? इति । ताभ्यां भणितम्-इतो नातिदूरे सुपरितोषनाम्नि तपोवने इति । ततश्च स राजा भक्तिकौतुकाभ्यांगतस्तत् तपोवनमिति । दृष्टाश्च तेन तत्र बहवस्तापसाः, कुलपतिश्च। ततः संजातसंवेगेन यथार्हमभिश्च वन्दिताः। उपविष्ट: कुलपतिसमीपे, स्थितश्च तेन सह धर्मकथाव्यापारेण कञ्चित् कालम् । ततो भणितश्चानेन सविनयं प्रणम्य भगवान् कुलपतिः । यथा कुरु मम प्रसादः सकलपरिवारपरिगतो मम गेहे आहारग्रहणेन । कुलपतिना भणितम्-वत्स ! एवम् । किन्तु मासाद् मासात्, तत्रापि च पारणकदिवसे प्रथमप्रविष्ट प्रथमगेहाद् एवं लाभे वाऽलाभे वा निवर्तते, न गेहान्तरमुपगच्छति। तस्मात् तं हए सहस्राम्रवन नामक उद्यान में बैठे थे कि इसी बीच नारंगियों की टोकरी लिये हुए दो तापसकुमार आये। दोनों को राजा ने देखा और अपने समय (परम्परा) के अनुरूप आशीर्वाद से उनका अभिनन्दन किया । खड़े होना, आसन प्रदान करना आदि उपचारों से उन दोनों का राजा ने बहुत सत्कार किया। दोनों तापसकुमारों ने कहा, "महाराज ! सुप्रसिद्ध नाम वाले हमारे कुलपति ने चारों आश्रमों के गुरु, धर्म-अधर्म की भली-भांति व्यवस्था करने वाले आपके शरीर का हालचाल जानने के लिए हम लोगों को भेजा है। यह सुनकर अब आप ही प्रमाण हैं ।" राजा ने कहा, "वे भगवान् कुलपति कहाँ हैं ?" उन दोनों ने कहा, "यहाँ समीप में ही सुपरितोष नामक तपोवन में हैं।" तदन्तर भक्ति और कौतूहल से युक्त हो वह राजा उस तपोवन में गया । वहाँ पर उसने बहुत से तापसों और कुलपति को देखा । अनन्तर मुक्ति की अभिलाषा उत्पन्न होने के कारण उसने यथायोग्य उनकी वन्दना की। वह कुलपति के पास में बैठा। उनके साथ कुछ समय तक धर्मकथा-वार्ता करता रहा। उसने भगवान् कुलपति से विनयपूर्वक प्रणाम कर कहा, “समस्त परिवार-जन के साथ मेरे घर आहार ग्रहण कर मुझ पर कृपा कीजिए।" कुलपति ने कहा, "वत्स ! ठीक है । किन्तु एक अग्निशर्मा नाम का तापस प्रतिदिन भोजन न कर एक एक मास बाद भोजन करता है । उसमें भी पारणा के दिन सबसे पहले जिस घर में प्रविष्ट होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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