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________________ पढमो भवो ] १६ . तं महातवस्सि मोतूण पडिवन्ना ते पत्थणा । राइणा भणियं-भगवं! अणुगिहीओ म्हि । अह कहि पुण सो महातावसो ? पेच्छामि णं ताव, करेमि तस्स दरिसणेण अप्पाणं विगयपावं । कुलवइणा भणियं-वच्छ ! एयाए सहयारवीहियाए हेठा झाणवरगओ चिट्ठइ । तओ सो राया ससंभंतो गओ सहयारवीहियं । दिट्ठो य तेण पउमासणोवविट्ठो, थिरधरियनयनजुयलो, पसंतविचित्तचित्तवावारो कि पि तहाविहं जाणं झायंतो अग्गिसम्मतावसो त्ति । तओ राइणा हरितवसपयट्टुंतपुलएण पणमिओ । तेण विय आसीसाए सबहुमाणमेवाहिणंदिओ, 'सागयं ते भणिऊण' उवविसाहि' ति संलत्तो । उवविसिऊणं सुहासणत्थेणं भणियं राइणा-भयवं ! किं ते इमस्स महादक्करस्स तवचरणववसायस्स कारणं ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं--भो महासत्त ! दारिहदक्खं. परपरिहवो, विरूवया, तहा महारायपुत्तो य गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो ति। तओ संजायनियनामासंकेण भणियं राइणा-भयवं ! चिटठउ ताव दारिदृदक्खाइयं ववसायकारण, अह कहं पुण महारायपुत्तो गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो त्ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं–महासत्त ! एवं कल्लाण महातपस्विनं मुक्त्वा प्रतिपन्ना तव प्रार्थना। राज्ञा भणितम्-भगवन् ! अनुगृहीतोऽस्मि । अथ कुत्र पुनः स महातापसः । प्रेक्षे तं तावत्, करोमि तस्य दर्शनेन आत्मानं विगतपापम् । ___ कुलपतिना भणितम् -वत्स ! एतस्यां सहकारवीथिकायां अधस्ताद् ध्यानवरगतस्तिष्ठति । ततः स राजा ससंभ्रान्तो गतः सहकारवीथिकाम्, दृष्टश्च तेन पद्मासनोपविष्ट:, स्थिरतनयनयुगल:, प्रशान्तविचित्रचित्तव्यापारः, किमपि तथाविधं ध्यानं ध्यायन् अग्निशर्म तापस इति । ततो राज्ञा हर्षवशप्रवर्तमानपुलकेन प्रणतः । तेनाऽपि च आशिषा सबहमानमेव अभिनन्दितः, 'स्वागतं तव' भणित्वा, 'उपविश' इति संलपितः । उपविश्य सुखासनस्थेन भणितं राज्ञा-भगवन् ! किं तव अस्य महादुष्करस्य तपश्चरणव्यवसायस्य कारणम् ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महासत्व ! दारिद्रयदुःखम्, परपरिभवः, विरूपता तथा महाराजपुत्रश्च गुणसेनो नाम कल्याणमित्रम् इति । ततः संजातनिजनामाऽशंकेन भणितं राज्ञा-भगवन् ! तिष्ठत् तावद् दारिद्रयदुःखादिकं व्यवसायकारणं, अथ कथं पुनर्महारा नपुत्रो गुणसेनो नाम कल्याणमित्रम् इति । अग्निशर्म-तापसेन वहाँ पर चाहे भोजन मिले अथवा न मिले, वहीं से लौट आता है, दूसरे घर नहीं जाता है। अत: उस महातपस्वी को छोड़कर आपकी प्रार्थना स्वीकार है।" राजा ने कहा, "भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ। वह महान् तापस कहाँ हैं ? उन्हें देखूगा, उनके दर्शन से अपने आपको निष्पाप करूँगा।" __कुलपति ने कहा, "वत्स ! इस आम्रवीथी के नीचे उत्कृष्ट ध्यान लगाये बैठा है।" तब वह राजा शीघ्र ही उस आम्रवीथी में गया। उसने पद्मासन लगाये हुए, स्थिर नेत्र युगल धारण किये हए अग्निशर्मा तापस को देखा। उसके चित्त के नाना व्यापार शान्त हो गये थे और वह कुछ-कुछ उसी प्रकार के ध्यान में रत था। तब हर्षवश जिसे रोमांच हो आया है, ऐसे राजा ने उसे प्रणाम किया। उसने भी आशीर्वाद देकर अत्यधिक सत्कार से अभिनन्दन किया। "तुम्हारा स्वागत है" कहकर "बैठो” ऐसा कहा। सुखपूर्वक बैठकर राजा ने कहा, "भगवन् ! आपके इस महा दुष्कर तपश्चरण करने का क्या कारण है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "हे महानुभाव ! निर्धनता सम्बन्धी दुःख, दूसरे के द्वारा किया गया तिरस्कार, कुरूपता तथा महाराज के पुत्र गुणसेन जैसा कल्याणमित्र (ये सब इस कार्य के कारण हैं)।" तब अपने नाम के कारण जिसे आशंका हो गयी थी ऐसे राजा ने कहा, "भगवन् ! निर्धनता, दुःखादि भले ही आपके तप करने के कारण रहें, किन्तु महाराज का पुत्र गुणसेन आपका कल्याणकारी मित्र कैसे है ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "महानुभाव ! वह इस प्रकार कल्याणकारी मित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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