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________________ २० [समराइच्चकहा मित्तो । सुण जे होंति उत्तमनरा धम्म सयमेव ते पवज्जंति । मज्झिमपयई संचोइया उ न कयाइ वि जहन्ना ॥४८॥ चोएइ य जो धम्मे जीवं विविहेण केणइ नएण। संसारचारयगयं सो नणु कल्लाणमित्तो त्ति ॥४६॥ तओ राइणा कुमारवुत्तंतं सुमरिऊण भणियं लज्जावणयवयणेण-भयवं ! कहं पुण तुमं तेण तेलोक्कबन्धुभूए धम्मे चोइओ? अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भो महासत्त ! नानाविहाओ, चोयणाओ ता कहचि निमित्तमेत्तेणं चेव चोइओ म्हि । तओ राइणा चिन्तियं । अहो से महाणुभावया, परिभवोवि' याणेणोवयारचोयण ति गहिओ। परपरिवायं च परिहरंतो सुद्धसहावत्तणओ न तं पिमन्नेइ । अहो ! दारुणं अकज्जं मए पावकम्मेणाणुचिट्ठियं । ता कहेमि से अकज्जायरणकलंकदूसियं अप्पाणं । एवं चितिऊण जंपियणेण-भयवं ! अहं भणितम्-महासत्त्व ! एवं कल्याणमित्रम् । शृण ये भवन्ति उत्तमनरा धर्म स्वयमेव ते प्रपद्यन्ते । मध्यमप्रकृतयः संचोदितास्तु न कदाचिदपि जघन्याः ॥४८॥ चादे यति च यो धर्मे जीवं विविधेन केनचिद् नयेन । संसारचारकगतं स ननु कल्याणमित्रम् इति ॥४६।। ततो राज्ञा कूमारवृत्तान्तं स्मत्वा भणितं लज्जावनतवदनेन-भगवन ! कथं पुनस्त्वं तेन त्रैलोक्यबन्धभते धर्मे चोदितः ? अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महासत्व ! नानाविधातश्चोदनातः, तस्मात् कथंचिद् निमित्तमात्रेण एव चोदितोऽस्मि । ततो राज्ञा चिन्तितम् । अहो अस्य महानुभावता, परिभवोऽपि चानेन उपकार.चोदनेति गृहीतः । परपरिवादं च परिहरन् शुद्धस्वभावत्वाद् न तमपि मन्यते । अहो ! दारुणमकायं मया पापकर्मणाऽनुष्ठितम् । तस्मात् कथयामि तस्य अकार्याचरणकलङ्कदूषितमात्मानम् । एवं चिन्तयित्वा जल्पित सुनो जो उत्तम मनुष्य होते हैं, वे धर्म को स्वयं प्राप्त होते हैं। मध्यम प्रकृति के मनुष्य प्रेरित किये जाने पर धर्म को प्राप्त होते हैं, किन्तु जघन्य पुरुष कभी भी धर्म को प्राप्त नहीं होते हैं। संसार रूपी कारागार में गये जीव को विविध नयों में से किसी भी नय से जो धर्म के प्रति प्रेरित करता है वह निश्चित रूप से कल्याणकारी मित्र है।" ॥४८-४६।। तब राजा ने कुमारावस्था के वृत्तान्त को याद कर लज्जा से मुख नीचा कर कहा, "भगवन् ! किस प्रकार उसने तीनों लोकों के बन्धुभूत धर्म में प्रेरित किया?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "हे महानुभाव ! नाना प्रकार से प्रेरित किया, अतः किसी निमित्तमात्र से ही प्रेरित किया गया हूँ।" तब राजा ने विचार किया--इसकी महानता आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है, कि तिरस्कार को भी इसने उपकार और प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया। दूसरे की निन्दा से बचकर शुद्धस्वभाव वाला होने के कारण उसे कुछ भी नहीं मानता है । ओह ! मुझ पापी ने कठोर कार्य किया है। __ अतः उससे अकार्य को करने के कलंक से दूषित अपने आपको कहता हूँ। ऐसा विचारकर उसने कहा, "भगवन् ! मैं वह पाप करने वाला, आपके हृदय को दुःख पहुँचाने वाला अगुणसेन हूँ।" अग्निशर्मा तापस ने १. परिहवे वि, २. गहिया, ३. शुद्वियं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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