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________________ पढमो भवो] सो महापावकम्मयारी तुह हिययसंतावयारी अगुणसेणो ति । अग्गिसम्मतावसेण भणियं-भ महाराय ! सागयं ते। कहं तुमं अगुणसेणो, जेण तए परपिंडजीवियमेत्तविहवो अहं ईइसि तव विभूइं पाविओ ति । राइणा भणियं-अहो ! ते महाणुभावया । किं वा तवस्सिजणो पियं वज्जिय अन्नं भणिउं जाणइ ? न य' मियंकबिंबाओ अंगारवट्ठीओ पडंति । ता अलं एइणा। भयवं! कया त पारणगं भविस्सइ ? अग्गिसम्मेण भणियं-महार य ! पंचहि दिणेहिं । राइणा भणियंभयवं ! जइ ते नाईव उवरोहो, ता कायव्वो मम गेहे पारणएणं पसाओ। विनाओस भए कुलवइणो सयासाओ तुज्झ पइल्नाविसेसो, अओ अणागयं पत्थेमिति। अग्गिसम्मेण भणियं-महाराय ! आगच्छउ ताव सो दियहो, को जाणइ अंतरे कि पि भविस्सइ । अविव एयं करेमि एण्हिं एयं काऊण पुण इमं कल्लं । काहामि को ण मन्नइ सुविणयतुल्लम्मि जियलोए ॥५०॥ मनेन-भगवन् ! अहं स महापापकर्मकारी तव हृदयसन्तापकारी अगुणसेन इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-भो महाराज ! स्वागतं तव । कथं त्वमगणसेनः; येन त्वया परपिण्डजीवितमात्रविभवः अहं ईदृशीं तपोविभूति प्रापित इति । राजा भणितम्-अहो ! तव महानुभावता, किं वा तपस्विजनः प्रियं वर्जयित्वा अन्यद् भणितुं जानाति ? न च मगाङ्कबिम्बाद् अङ्गारवृष्टयः पतन्ति । तस्मात् अलमेतेन। भगवन् ! कदा तव पारणकं भविष्यति ? अग्निशर्मणा भणितम्-महाराज ! पञ्चभिदिनैः । राज्ञा भणितम्-भगवन् ! यदि तव नातीव उपरोधः, तस्तात् कर्तव्यो मम गेहे पारणकेन प्रसादः । विज्ञातश्च मया कुलपतेः सकाशात् तव प्रतिज्ञाविशेषः, अतोऽनागतं प्रार्थयामीति। अग्निशर्मणा भणितम्-महाराज ! आगच्छतु तावत् स दिवसः, को जानाति अन्तरे किमपि भविष्यति । अपि च एतत् करोमि, इदानीं एतत् कृत्वा पुनरिदं कल्यम् । करिष्यामि को नु मन्यते स्वप्नकतुल्ये जीवलोके ॥५०॥ कहा, "हे महाराज ! तुम्हारा स्वागत है। आप अगुणसेन कैसे हैं जिसने कि दूसरे के द्वारा दिये गये आहार पर जीवन-यापन करनेवाले मुझको इस प्रकार की तपोमयी विभूति प्राप्त करा दी?" राजा ने कहा, "आपकी महानता आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है । क्या तपस्विजन प्रिय को छोड़कर दूसरा कथन करना जानते हैं ? चन्द्रमा के बिम्ब से अंगार की वृष्टि नहीं होती है। अच्छा, भगवन् ! आपका व्रतान्त भोजन कब होगा ?" अग्निशर्मा ने कहा, "महाराज ! पांचवें दिन।" राजा ने कहा, "भगवन् ! यदि कोई अत्यधिक रुकावट न हो तो मेरे घर पारणा (भोजन) करने की कृपा करें। मुझे कुलपति से आपकी प्रतिज्ञा के विषय में जानकारी मिली अत: आगे के लिए प्रार्थना करता हूँ। अग्निशर्मा ने कहा, “महाराज ! वह दिन आने दीजिए, कौन जानता है, बीच में क्या होगा? कहा भी है 'यह मैं इस समय करता हूँ, इसे करके पुनः यह कल करूँगा' स्वप्नवत् संसार में ऐसा कौन मानता है ? ॥५०॥ १. न हि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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