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[ समराइच्चकहा
अन्नं च महाराय ! ___धी जियलोयसहावो जहियं नेहाणुरायकलिया वि।
जे पुग्वण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हे न दीसन्ति ॥५१॥ ता महाराय ! आगच्छउ ताव सो दियहो ति। राइणा भणियं - भयवं ! विग्धं मोतूण संगच्छह । अग्गिसम्मतावसेण भणियं---जइ एवं ते निब्बंधो ता एवं पडिवन्ना ते पेत्थणा । तओ राया पणमिऊणं हरिसवसपलइयंगो कंचि वेलं गमेऊण पविट्ठो नयरं। कया कुलवइणो सपरिवारस्स भत्तिविभवाणुरूवा पूया। अइक्कन्तेसु य पंचसु दिणेषु पारणगदिवसे पढमं चेव पविट्ठो अग्गिसम्मतावसो पारणगनिमितं रायगेहं ति । तन्मिय दियहे कहंचि राइणो गुणसेणस्त अतीव सोसवेयणा समप्पन्ना। तओ आउलीहूयं सव्वं चेव रायउलं। पविट्ठा य तत्थ वेज्जसत्थवितारया वेज्जा, उग्गाहति नाणाविहाओ चिगिच्छासंहियाी पीसिज्जति बहुविहाई ओसहाई, दिज्जति सिरोखेयावहारिणो' विचित्तरयणलेवा। किंकायव्वमूढा उवहसियसुक्कविहस्सइबुद्धिविहवा वि मंतिणो। अन्यच्च महाराज !
धिक् जीवलोकस्वभावं यत्र स्नेहानुराग कलिता अपि ।
ये पूर्वाह्न दृष्टाः तेऽपराह्न न दृश्यन्ते ॥५१॥ तस्मात् महाराज ! आगच्छतु तावद् स दिवस इति । राज्ञा भणितम्। विघ्नं मुक्त्वा संगच्छन्ताम् । अग्निशर्मतापसेन भणितम्--यदि एवं तव निर्बन्धः, तस्माद् एवं प्रतिपन्ना तव प्रार्थना । ततो राजा प्रणम्य हर्षवशपुलकितानः कांचिद् वेलां गमयित्वा प्रविष्टो नगरम् । कृता कुलपतेः सपरिवारस्य भक्तिविभवानुरूपा पूजा । अतिक्रान्तेषु च पञ्चसु दिनेषु पारणकदिवसे प्रथममेवप्रविष्टोऽग्निशर्मतापसः पारणकनिमित्तं राजगेहमिति । तस्मिश्च दिवसे कथंचिद् राज्ञो गुणसेनस्य अतीव शीर्षवेदना समुत्पन्ना । तत आकुलीभूतं सर्वमेव राजकुलम् । प्रविष्टा च तत्र वैद्यशास्त्रविशारदा वैद्याः, उग्राहयन्ति नानाविधाः चिकित्सासंहिताः, पिष्यन्ते बहुविधानि औषधानि, दीयन्ते शिरः खेदापहारिणो विचित्ररत्नलेपाः । किंकर्तव्यमूढा उपहसितशुक्रबृहस्पति
और फिर महाराज !
संसार के स्वभाव को धिक्कार है कि जिसमें स्नेह और अनुराग से युक्त प्राणी भी, जो सुबह दिखाई देते हैं सायंकाल दिखाई नहीं देते हैं ॥५१॥
अतः महाराज ! वह दिवस आने दो।" राजा ने कहा, "विघ्न को छोड़कर (सामान्य स्थिति में) आइए।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, “यदि आपका यह आग्रह है तो इस प्रकार आपकी प्रार्थना स्वीकार है।" तब राजा ने प्रणाम कर कुछ समय वहीं बिताकर हर्ष से पुलकित अंग होते हुए नगर में प्रवेश किया। भक्ति और वैभव के अनुरूप सपरिवार कुलपति की पूजा की। पाँच दिन बीत जाने पर आहार के दिन प्रथम ही अग्निशर्मा तापस पारणा (व्रतान्त आहार) के लिए राजमहल में प्रविष्ट हुआ। उसी दिन राजा गुणसेन के कोई अत्यन्त शिरोवेदना उत्पन्न हुई । उससे सारा राजपरिवार आकुल हो गया। वैद्यकशास्त्र में निपुण वैद्य वहाँ पर प्रविष्ट हुए, अनेक प्रकार की चिकित्सा संहिताओं को खोला गया, बहुत प्रकार की औषधियाँ पीसी गयीं, शिर की थकावट दूर करनेवाले विचित्र रत्नों के लेप दिये गये (किये गये)। शुक्र तथा बृहस्पति के बुद्धि-वैभव को भी तिरस्कृत करनेवाले मन्त्री किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये । पुरोहितों ने मन्त्रयुक्त आहुतियाँ देकर शान्तिकर्म प्रस्तुत किया।
१. सिरो।
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