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________________ पढमो भयो। पत्थुयं पुरोहिएहि मंतगभिणाहुइप्पयाणसारं संतिकम्म । ___ तहा मिलाणसुरहिमल्लदामसोहं, सुवण्णगड्ढ'-वियलियंगरायं बाहजलधोयकवोलपत्तलेह, करयलपणामियपवायवयणपंकयं, उदिवगमतेउरं। तहा विरत्तकंदुयकोलं, परिचत्तचित्तयम्मवावारं, विरयगीयणच्चरणारम्भं, अवहत्थियभूसणकलावं दुम्मणविमणकन्नयंतेउरं । वेत्तजट्टिनिमियविच्छायमुहसोहा व पडिहारा, रन्नो वेषणाइसयसूयगा दुम्मणा मडहकंचुइया, परिचत्तनिययवावारा विचित्ता सूयगारप्पमुहा निओगकारिणो त्ति । तओ सो अग्गिसम्मतावसो एवंविहे रायकुले कंचि वेलं गमेऊण वयणमेतेणवि केवि अकयपडिवत्तो निग्गओ रायगेहाओ त्ति निग्गंतूण गओ तवोवणं, दिट्ठो य तावसेहि, भणिओ य तेहिं -भयवं ! अकयधारणगो विव परिमिलाणदेहो लक्खिज्जसि, ता किं न कयं पारणयं ? न पविट्ठो इआणि तत्थ रन्नो गुणसेणस्स गेहं ? ति । अग्गिसम्मतावसेव भणियं-पविट्ठो अहं नरिंदगेहं, किं तु सो नूणं अपड्डसरीरो राया, जो बुद्धिविभवा अपि मन्त्रिणः । प्रस्तुतं पुरोहितैः मन्त्रभिताऽऽहुतिप्रदानसारं शान्तिकर्म । तथा म्लानसुरभिमाल्यदामशोभम्, सुवर्णकाट्यविचलिताङ्गरागम्, वाष्पजलधौतकपोलपत्रलेखम, करतलप्रणामितम्लानवदनपङ्कजम्, उद्विग्नम् अन्तःपुरम् । तथा विरक्तकन्दुकक्रीडम्, परित्यक्तचित्रकर्मव्यापारम, विरतगीतनर्तनाऽऽरम्भम, अपहस्तितभूषणकलापम, दुर्मनोविमनः कन्यान्तःपुरम् । वेत्रयष्टिस्थापित, विच्छायमुख शोभाश्च प्रतीहाराः, राज्ञो वेदनातिशयसूचकाः दुर्मनसो लघकञ्चुकिनः, परित्यक्तनिजकव्यापारा: विचित्रा: सूपकारप्रमुखा नियोगकारिण इति । ततः सोऽग्निशमंतापस एवंविधे राजकुलं कांचिद् वेलां गमयित्वा वचनमात्रेणाऽपि केनापि अकृतप्रतिपत्तिनिर्गतो राजगेहादिति । निर्गत्य गतस्तपोवनम्, दृष्टश्च तापसैः, भणितश्च तैः-भगवन् ! अकृतपारणक इव परिम्लानदेहो लक्ष्यसे, तस्मात् कि न कृतं पारणकम् ? न प्रविष्ट इदानीं तत्र राज्ञो गुणसेनस्य गेहम् ? इति । अग्निशर्मतापसेन भणितम्-प्रविष्टोऽहं नरेन्द्रगेहम्, किन्तु स नूनम् अपडुशरीरो राजा, यत अन्तःपुर उद्विग्न हो गया । सुगन्धित माला की शोभा म्लान पड़ गयी, स्वर्णमय सुगन्धित उबटन विचलित हो गया। गालों की पत्ररचना न गयी, कुम्हलाये हुए मुखकमल से हथेलियाँ सटाकर प्रणाम किया जाने लगा। उसी तरह कन्याओं का अन्तःपुर दुखी और बेमन हो गया, गेंद खेलना बन्द कर दिया गया, चित्र-लेखन का कार्य छोड़ दिया गया, गाने और नाचने का कार्य रोक दिया गया, आभूषणों के समूह को हाथों से उतार डाला। द्वारपाल बेंत की छड़ी पर झके हुए कान्ति रहित मुख की शोभा वाले हो गये । राजा की वेदनाधिक्य की सूचना देनेवाले लघु कंचुकी दुःखी हो गये । रसोई आदि का प्रमुख कार्य करनेवाले व्यक्तियों (भृत्यों अथवा कर्मचारियों) ने अपने-अपने नाना प्रकार के कार्यों को छोड़ दिया । वह अग्निशर्मा तापस उस प्रकार के राजभवन में कुछ समय बिताकर वहाँ से निकल गया। किसी ने वचन मात्र से भी उसकी अगवानी नहीं की। निकलकर तपोवन में गया, तापसों ने उसे देखा। उन्होंने कहा, "भगवन ! बिना व्रतान्त भोजन किये के समान म्लान शरीर वाले दिखलाई दे रहो हो ! क्या आपने आहार नहीं किया ? क्या आप राजा गुणसेन के भवन में आहार के लिए प्रविष्ट नहीं हुए ?" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "मैं राजा के घर में प्रविष्ट हुआ था किन्तु राजा की तबियत अच्छी नहीं थी; क्योंकि उस घर के सभी परिजन मुझे उद्विग्न दिखाई दिये । उस प्रकार की स्थिति को देखने में असमर्थ हुआ मैं १. गंधड्ढ सुवण्णगाड, २. जेट्टि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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