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[ समराइच्चकहा
उब्विग्गपरियणं सव्वं चैव तं मए गेहमवलोइयं, तओ अहं तं तहाविहं दट्ठमसंहतो लहुं चैव निग्गओ त्ति । तावसेहि भणियं को संदेहो, दढमपडुसरीरो राया, अन्नहा कहं तारिसीए तवस्सिजणभतीए भयवओ पारणगं मुणेऊण सयं चेव दत्तावहाणो न होइ ? अन्नं च - अईव भगवओ उवरि भत्तिबहुमाणो तस्स नरवइस्स, जेण कुलवइसमक्खं बहुयं सम्भूयगुणकित्तणं तेण कथं आसि । अग्गिसम्मतावसेण भणियं - आरोग्गं से हवउ गुरुयणभूयगस्स, किं मम आहारेणं ति । पडिवन्नो मासोववासवयं ।
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इओ य राइणा गुणसेणेणं उवसंतसीसवेयणेणं पुच्छिओ परियणो । अज्ज तस्स महातबस्सिस्स पारणदियहो, तो सो आगओ, पूइओ वा केणइ न वत्ति ? तेहि संलत्तं - महाराय ! आगओ आसि, किं तु तुह सीसवेयणाजणि' - अहिययसंतावपरिचत्तनिययकज्जवावारे परियणे न hes संपूइओ पुच्छिओ वा । अमुणियवत्ततो य विचित्तं ते परियणमवलोइऊण कंचि कालं गमेऊण उग्गो aिय निग्गओ रायगेहाओ त्ति । राइणा भणियं - अहो ! मे अहम्नया ; चुक्कोमि महालाभस्स, संपत्तो य तवस्सिजणदेहपीडाकरणेण महंतं अणत्थ त्ति ।
उद्विग्नपरिजनं सर्वमेव तद्मया गेहमवलोकितम्, ततोऽहं तत् तथाविधं द्रष्टुमसहमान: लघ्वेब निर्गत इति । तापसैर्भणितम् - कः सन्देहः, दृढम् अपटुशरीरो राजा, अन्यथा कथं तादृश्यां तपस्विजनभक्त्यां भगवताः पारणकं ज्ञात्वा स्वयमेव दत्तावधानो न भवति ? अन्यच्च - अतीव भगवत उपरि भक्तबहुमान: तस्य नरपते:, येन कुलपतिसमक्षं बहुकं सद्भूतगुणकीर्तनं तेन कृतमासीत् । अग्निशर्मतापसेन भणितम् - आरोग्यं तस्य भवतु गुरुजनपूजकस्य किं मम आहारेण इति प्रतिपन्नो मासोपवासव्रतम् ।
इतश्च राज्ञा गुणसेनेन उपशान्तशीर्षवेदनेन पृष्टः परिजनः । अद्य तस्य महातपस्विनः पारणकदिवस:, ततः स आगतः पूजितो वा केनचिद् न वा ? इति । तैः संलपितम् - महाराज ! आगत आसीत्, किन्तु तव शीर्ष वेदनाजनित हृदय सन्तापपरित्यक्तनिजककार्यव्यापारे परिजने न केनापि सम्पूजितः, पृष्टो वा । अज्ञात वृत्तान्तश्च विचित्रं तव परिजनमवलोक्य कंचित् कालं गमयित्वा उद्विग्न इव निर्गतो राजगेहादिति । राज्ञा भणितम् - अहो ! मम अधन्यता, भ्रष्टोऽस्मि महालाभात् । सम्प्राप्तश्च तपस्विजनदेहपीडाकरणेन महान्तमनर्थमिति ।
शीघ्र ही निकल आया ।" तापसों ने कहा, "इसमें क्या सन्देह है। निश्चित रूप से राजा की तबियत ठीक नहीं थी, नहीं तो उस प्रकार तपस्वीजनों के प्रति भक्ति रखने वाला राजा कैसे आहार का दिन जानता हुआ भी ध्यान न देता ? दूसरी बात यह है कि भगवान् पर राजा की अतीव भक्ति है; क्योंकि कुलपति के सामने उसने बहुत से विद्यमान गुणों का कीर्तन किया था ।" अग्निशर्मा तापस ने कहा, "गुरुजनों की उपासना करनेवाले उस राजा का आरोग्य हो । मुझे आहार से क्या ?" ऐसा कहकर एक मास के उपवास का व्रत पालन करने लगा ।
इधर राजा गुणसेन ने सिरदर्द ठीक हो जाने के बाद सेवकों से पूछा, "आज उस महान् तपस्वी के आहार करने का दिन था, अतः वह आये होंगे, किसी ने उनकी पूजा की अथवा नहीं ?” उन्होंने कहा, "महाराज ! आये तो थे, किन्तु आपकी शिरोवेदना से उत्पन्न हार्दिक दुःख के कारण अपने-अपने कार्यों को छोड़ देनेवाले सेवकों ने न तो उनकी पूजा की और न पूछा । हालचाल न जानने के कारण तथा आपके सेवकों को विचित्र जानकर कुछ समय बिताकर वह उद्विग्न हुए के समान राजमहल से निकल गये ।” राजा ने कहा, "अरे, मैं अधन्य हूँ जो कि महालाभ से च्युत हो गया, तपस्विजनों के शरीर को पीड़ा पहुँचाने के कारण मैंने बहुत बड़ा अनर्थ किया ।"
१. जणिय । २. महालास्स |
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