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________________ पढमो भवो] पेच्छंति न संगकयं दुक्खं अवमाणणं च लोगाओ। दोग्गइपडणं च तहा वणवासी सव्वहा धन्ना ॥४॥ एवमणुसासिएण भणियं अग्गिसम्मेणं- भगवं! एवमेयं न संदेहो त्ति। ता जइ भयवओ ममोवरि अणुकंपा, उचिओ वा अहं एयरस वयविसेसस्स, ता करेह मे एयवयप्पयाणेणाणुग्गहं ति । इसिणा भणियं-वच्छ ! वेरग्गमग्गाणुगओ तुमं ति करेमि अणुग्गह, को अन्नो एयस्स उचिओ ति। तओ अइक्कतेसु कइवयदिणेसु संसिऊण य सवित्थरं निययमायारं, पसत्थे तिहिकरणमुहत्तजोगलग्गे दिन्ना' से तावसदिक्खा । महापरिभवजणियवेरग्गाइसयभाविएण याणेण तम्मि चेव दिक्खादिवसे सयलतावसलोयपरियरियगुरुसमक्खं कहा महापइन्ना। जहा यावज्जीवं मए मासाओ मासाओ चेव भोत्तव्वं, पारणगदिवसे य पढमपविठ्ठणं पढमगेहाओ चेव लाभे वा अलाभे वा नियत्तियव्वं, न गेहान्तरमभिगन्तव्वं ति। एवं च कयपइन्नस्स प्रेक्षन्ते न संगकृतं दुखम्, अवमाननं च लोकात् । दर्गतिपतनं च तथा वनवासिनः सर्वथा धन्याः ॥४५॥ एवमनुशासितेन भणितमग्निशर्मणा-भगवन् ! एवमेतत् न सन्देह इति । तस्माद् यदि भगवतो ममोपरि अनुकम्पा उचितो वा अहं एतस्य व्रतविशेषस्य, तस्माद् कुरु मम एतद्वतप्रदानेन अनुग्रहमिति । ऋषिणा भणितम्-वत्स ! वैराग्यमार्गानुगतस्त्वमिति करोमि अनुग्रहम, कोऽन्य एतस्य उचित इति । ततोऽतिक्रान्तेष कतिपयदिनेष शंसित्वा च सविस्तरं निजकमाचारम्, प्रशस्ते तिथि-करण-महर्त-योगलग्ने दत्ता तस्य तापसदीक्षा। महापरिभवजनितवैराग्यातिशयभावितेन चानेन तस्मिन्नेव दीक्षादिवसे सकलतापसलोकपरिकरितगुरुसमक्षं कृता महाप्रतिज्ञा। यथा-यावज्जीवं मया मासाद् मासाद् एव भोक्तव्यम्, पारणकदिवसे च प्रथम-प्रविष्टेन प्रथमगेहाद एव लाभे वाऽलाभे वा निवर्तितव्यम्, न गेहान्तरमभिगन्तव्यमिति । एवं च कृतप्रति आसक्ति से उत्पन्न हुआ (परिग्रहजनित) दुःख और लोगों के द्वारा किया गया अपमान तथा खोटी गति में गमन दिखाई नहीं देता है । इस प्रकार वनवासी सर्वथा धन्य हैं ॥४५॥ इस प्रकार शिक्षा दिये जाने पर अग्निशर्मा ने कहा, "भगवन् ! ऐसा ही है, इसमें सन्देह नहीं । अतः यदि भगवान की मेरे ऊपर दया है और मैं इस व्रतविशेष के योग्य हूँ तो इस व्रत प्रदान से मेरे ऊपर अनुग्रह कीजिए। ऋषि ने कहा, "वत्स ! तुमने वैराग्य-मार्ग का अनुसरण किया है, अतः तुम पर अनुग्रह करता हूँ। इसके योग्य और कौन है ?" तदनन्तर कुछ दिन बीत जाने पर अपने आचार की विस्तृत रूप से शिक्षा देकर उत्तम तिथि, करण. महर्त, योग और लग्न में उस अग्निशर्मा को तापस दीक्षा दी। घोर तिरस्कार से उत्पन्न वैराग्य की अधिकता के कारण इस अग्निशर्मा ने उसो दीक्षा के दिन, जब कि समस्त तापसी गुरु के चारों ओर इकट्ठे थे, एक बहुत बड़ो प्रतिज्ञा की। "आजीवन मैं एक-एक माह बाद भोजन करूंगा। पारणा (व्रत की समाप्ति पर भोजन) के दिन सबसे पहले जिस घर जाऊँगा, वहाँ आहार मिले तो ठीक, अथवा नहीं भी मिले तो लौट आऊंगा और अन्य घर नहीं जाऊँगा।" इस प्रकार प्रतिज्ञा करने के बाद उस प्रतिज्ञा का भली-भाँति पालन करते हए उसके कई १. दिण्णा । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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