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पुत्र उत्पन्न हुआ । पितामह के समान उसका नाम समरसेन रखा गया ।
एक बार चम्पा से अमरगुरु के द्वारा भेजा हुआ गुप्तचर आया । उसने निवेदन किया कि विषेण को राज्य से विरक्त जान अचलपुर के स्वामी मुक्तापीठ ने स्वयं आकर थोड़े ही दिनों में चम्पा ले ली। मुक्तापीठ ने भण्डार ले लिया, राज्य को वश में कर लिया । समरकेतु के साथ कुमार मुक्तापीठ से युद्ध के लिए चल पड़ा। युद्ध हुआ । युद्ध में कुमार ने मुक्तापीठ को जीत लिया । कुमार ने विषेण को राज्य पर अधिष्ठित करना चाहा, किन्तु वह नहीं आया । उसने कहला भेजा कि वह दूसरों की भुजाओं से उपार्जित राज्य नहीं करना चाहता है । प्रजा के कहने से कुमार सेन ने राज्य-भार स्वीकृत कर लिया ।
[ रामराज्यका
इस बीच कुमार के वृत्तान्त को सुनकर 'यह महापुरुष है, संयम का भार धारण करने योग्य हैं, ऐसा विचारकर करुणापूर्ण हृदय वाले चाचा हरिषेणाचार्य अनेक साधुओं के साथ कुमार के पास आये। कुमार हर्षित हुआ । उसने वन्दना की । राजर्षि ने धर्मलाभ दिया । राजर्षि ने गुरु के द्वारा कहा हुआ एक वृत्तान्त सुनाया, जिसे सुनकर राजा सेन वैराग्य को प्राप्त हो गया। राज्य पर कुमार अमरसेन को बैठाकर शास्त्रोक्त विधि से शान्तिमती के साथ, अमरगुरु आदि प्रधान परिजनों को साथ लेकर कुमार सेन हरिषेण गुरु के पास प्रव्रजित हो गया ।
अनन्तर गाँव में एक रात्रि, नगर में पाँच रात्रि विहार करते हुए अधिक समय बीत जाने पर सेन कोलाक सन्निवेश में आये । कुमार विषेण ने उन्हें देखकर मारने का विचार किया । आधी रात के समय तलवार लेकर वह अकेला ही मुनिवर के पास गया । उसने भगवान् के ऊपर तलवार चलायी । तलवार को क्षेत्रदेवी ने छीन लिया । विषेण स्तम्भित हो गया। देवी ने उसे कठोर वचन कहकर भगाया, किन्तु तीव्र कषाय के उदय से देवी के वचन को न मानकर वह पुनः भगवान् को मारने के लिए प्रवृत्त हुआ। देवी ने थप्पड़ मार दिया। विषेण रुधिर का वमन करता हुआ पृथ्वी पर गिर गया, वेदना से मूर्च्छित हो गया। 'भगवान् को बाधा होगी' - यह सोचकर बनदेवी क्षुब्ध हुई। करुणायुक्त हो उसने विषैण को आश्वस्त कर वनकुंज में ले जाकर छोड़ दिया। ओह ! मेरे पापकर्म का यह फल है, अतः यह नहीं मारा गया। इस प्रकार रौद्र ध्यान कर नरक की आयु बाँध ली। एक बार परिजनों के वियुक्त हो जाने पर क्षुधा से पीड़ित अकेला ही भ्रमण करते हुए, दीन स्वर में बोलते हुए विषेण को वोप्पिल अटवी के मध्यभाग में शबरों ने मार डाला। वह तमः नामक नरक की पृथ्वी में बाईस सागर की आयु वाला नारकी हुआ । भगवान् सेन मुनि भी संयमपूर्वक विहार कर अन्त में सल्लेखनापूर्वक मरण तैतीस सागर की आयु वाले देव हुए।
कर नवम ग्रैवेयक में
आठवें भव की कथा
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में अयोध्या नामक नगरी है। वहाँ मैत्रीबल नाम का राजा था। उसकी पद्मावती नामक रानी थी। नवम ग्रैवेयक का निवासी वह देव आयु पूरी कर वहाँ से च्युत होकर पद्मावती की कुक्षि से गुणचन्द्र नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ । विषेण का जीव नारकी उस नरक से निकलकर पुनः संसार में भ्रमण कर वैताढ्य पर्वत के रथनूपुर चक्रवालपुर नगर में विद्याधर के रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम 'वानमन्तर' रखा गया। एक बार वह अयोध्या के मदननन्दन नामक उद्यान में आया। उसने उस उद्यान में चित्रकला के विनोद का अनुभव करते हुए कुमार गुणचन्द्र को देखा । उसे देखकर पापकर्म के उदय से उसे अरति ने जकड़ लिया। उसने सोचा- मेरे दुःख का कारण यह कौन है अथवा इस की जानकारी मे क्या इस दुराचारी को ही मार डालता हूँ। उसने कुमार पर विद्या के बल से नाना प्रकार के
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