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________________ २ देउ सुहं वो सुरसिद्ध मणु' अविदेहि सायरं नमिआ । तित्थयरवयणपंकर्यावणिग्गया मणहरा वाणी ॥ ५ ॥ अलं पवित्रेण । सुणह सोअव्वा, पसंसह पसंसणिज्जाई, परिहरह परिहरिअव्वाई' आयरह आयरिअव्वाइं । तत्थ सोअव्वाइं नराऽमर- सिवसुहजणयाइ' अत्थसाराई । सव्वन्नुभासिआई भुवणम्मि पइट्ठिअजसाइं ॥६॥ ताई चिय विवहाणं पसंसणिज्जाई तह य जाई च । तेहि चिय भणिआई सम्मत्त नाण - चरणाई ॥७॥ परिहरिअव्वाइ तहा कुगईवासस्स हेउभूआई । मिच्छत्तमाइआई लोगविरुद्धाई य तहेव ॥ ८ ॥ ददातु सुखं वः सुरशिद्धमनुजवृन्दैः सादरं नता । तीर्थंकरवदनपङ्कजविनिर्गता मनोहरा वाणी ॥ ५ ॥ अलं प्रविस्तरेण । शृणुन श्रोतव्यानि, प्रशंसत प्रशंसनीयानि, परिहरत परिहर्तव्यानि, आचरत आचरितव्यानि । तत्र - श्रोतव्यानि नरामर - शिवसुखजनकानि अर्थसाराणि । सर्वज्ञभाषितानि भुवने प्रतिष्ठित यशांसि ॥ ६ ॥ Jain Education International तान्येव विबुधानां प्रशंसनीयानि तथा च यानि च । तैरेव भणितानि सम्यक्त्व-ज्ञान चरणानि ॥७॥ परिहर्तव्यानि तथा कुगतिवासस्य हेतुभूतानि । मिथ्यात्वादिकानि लोकविरुद्धानि च तथैव ॥ ८ ॥ [ समराइच्चकहा से 'युक्त है, भी आपका मङ्गल करे ||४|| देव सिद्ध और मनुष्यों के समूह द्वारा जिसे सादर नमस्कार किया जाता है ऐसी, तीर्थंकरों के मुखकमल से निकली हुई मनोहर (द्वादशाङ्ग) वाणी भी आप सभी को सुख प्रदान करे ||५|| करणीय कार्य --- अत्यधिक विस्तार से बस ! सुनने योग्य बातों को सुनना चाहिए। प्रशंसा करनी चाहिए, छोड़ने योग्य कार्यों को छोड़ देना चाहिए, आचरण योग्य कार्यों चाहिए । लोक में जिनका यश प्रतिष्ठित है तथा जो मनुष्यों और देवों के मङ्गल और सुखों (अथवा मोक्षसुख) के जनक हैं ऐसे सर्वज्ञभाषित अर्थसारों (द्वादशाङ्ग वाणी ) को श्रवण करना चाहिए || ६ || उन्हीं (तीर्थंकरों ) के द्वारा सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र का जो प्रतिपादन किया गया है वहीं विद्वानों के द्वारा प्रशंसनीय है ||७|| दुर्गतियों के वास के कारणभूत और लोक विपरीत जो मिथ्यात्वादिक हैं, उन्हें छोड़ना चाहिए ||८|| दुर्गतियों के नाशक और प्रशंसनीय कार्यों की का आचरण करना १. मणुय, २ नमिया, ३ परिहरियव्वाई ४. सिवसुजणयाई ५ सव्वन्तुभासियाई, ६ पइट्टियजसाइं, ७ भणियाई, ८. परिहरियव्वाई, ९. भूयाई, १०. माझ्याई | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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