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________________ ११५ [समराज्यकहा खमाइगो साहुधम्मो। तं च सुणमाणस्स समुप्पन्ना देसविरइपरिणई, पवड्ढमाणसंवेगस्स जाओ भवविरागो। चितियं च मए-अलं संसारपवड्ढणामेत्तफलेणं इमिणा परिकिलेसेणं, पवज्जामो पव्वज्जं ति। . एत्थंतरम्मि य गलिओ कम्मसंघाओ, पयलिया बंधणदिई, विहावियं अत्तविरिएणं, समुप्पन्ना सव्वविरइपरिणइ त्ति । कहावसाणे य विन्नत्तो मए भयवं गुरू । अणुग्गिहीओ अहं भयवया, विरत्तं च मे चित्तं भवपवंचाओ, ता आइसउ भयवं कि मए कायव्वं ति। तओ तेण सुय(या)सयनाणिणा मम भावं वियाणिऊण भणियं-जुज्जइ भवओ महापुरिससेवियं समगत्तणं काउं ति । तओ मए तस्स समावम्मि चेव पवग्नं समणत्तणं, परिवालियं च विहिणा । तओ अहाउयं पालिऊण कालमासे कालं किच्चा देहं चइऊण नवसागरोवमाऊ वेमाणियत्ताए उववन्नो म्हि बम्भलोए, इयरो वि य जन्नदेवो तिसागरोवमठिई सक्करप्पभाए नारगो त्ति । तओं अहमहाउयं पालिऊण देवलोगानो चुओ समागो इहेव विदेहे गंधिलावईविजए रयणपुरे नयरे रयणसागरस्स सत्थवाहस्से सिरिमईए साधुधर्मः। तं च शृण्वतः समुत्पन्ना देशविरतिपरिणतिः, प्रवर्धमानसंवेगस्य जातो भवविरागः । चिन्तितं च मया--अलं संसारप्रवर्धनामात्रफलेन अनेन परिक्लेशन, प्रपद्यामहे प्रव्रज्यामिति । अत्रान्तरे च गलितः कर्मसंघातः, प्रचलिता बन्धनस्थितिः, विभावितमात्मवीर्येण, समुत्पन्ना सर्वविरतिपरिणतिरिति । कथाऽवसाने च विज्ञप्तो मया भगवान् गुरुः । अनुगृहोतोऽहं भगवता, विरक्तं च मे चित्तं भवप्रपञ्चात्, तत आदिशतु भगवान् किं मया कर्तव्यमिति । ततस्तेन श्रुताशयज्ञानिना मम भावं विज्ञाय भणितम्-युज्यते भवतो महापुरुषसेवितं श्रमणत्वं कर्तुमिति । ततो मया तस्य समीपे एव प्रपन्नं श्रमणत्वम्, परिपालितं च विधिना। ततो यथाऽऽयुष्कं पालयित्वा कालमासे कालं कृत्वा देहं त्यक्त्वा नवसागरोपमायुर्वैमानिकतयोपपन्नोऽस्मि ब्रह्मलोके, इतरोऽपि च यज्ञदेवो त्रिसागरोपमस्थितिः शर्कराप्रभायां नारक इति। ततोऽहं यथाऽऽयुः पालयित्वा देवलोकात् च्युतः सन् इहैव विदेहे गन्धिलावतो विजये रत्नपुरे नगरे रत्नसागरस्य सार्थवाहस्य श्रीमत्या पूछा। भगवान् ने साधुओं का क्षमादिक धर्म कहा। उसे सुनकर (मेरे मन में) देशविरति रूप परिणाम उत्पन्न हुए। मेरा धर्मार नुराग बढ़ता गया और मुझे संसार से विराग हो गया। मैंने सोचा-संसार का बढ़ना ही जिसका फल है, ऐसा यह क्लेश व्यर्थ है । मैं दीक्षा धारण करता हूँ। इसी बीच कर्मों का समूह गलने लगा, बन्धन की स्थिति ढीली हो गयी। आत्मा पुरुषार्थ से चमकने लगा और सर्वविरतिरूप परिणाम उत्पन्न हुआ। प्रवचन के अन्त में मैंने गुरु भगवान् से निवेदन किया, "मैं भगवान् से अनुगृहीत हुआ हूँ। मेरा चित्त संसार रूपी प्रपंच से विरक्त हो गया है। अतः भगवान् मुझे आदेश दें, मैं क्या करूं ?" तब श्रुतज्ञान के अतिशय से मेरे भावों को जानने वाले उन्होंने कहा, "आप महापुरुषों द्वारा सेवित श्रमणदीक्षा धारण करने योग्य हैं।" तब मैं उनके समीप ही श्रमण हो गया और विधिपूर्वक उसका पालन किया। तब आयुकर्म के अनुसार आयु भोगकर समय व्यतीत होने पर मृत्यु प्राप्त कर, शरीर त्याग कर नौ सागर आयु वाले ब्रह्मलोक में वैमानिक देव हुआ। दूसरा यज्ञदेव भी तीन सागर स्थिति वाले शर्कराप्रभा नरक में नारकी हुआ। इसके बाद मैं आयु पूर्ण कर स्वर्गलोक से च्युत होकर इसी विदेहक्षेत्र में गन्धिलावती देश के रत्नपुर नामक नगर में रत्नसागर सेठ की श्रीमती नाम की पत्नी के गर्भ में पुत्र के रूप में आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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