________________
बोलो भयो]
विन्नत्तो राया - देव ! मम एस अवराहो खमीयउ, मुच्चउ जन्नदेवो। राइणा भणियं-सत्यवाहपुत्त ! न जुत्तमेयं, दुरायारो ख एसो, ता अन्नं विन्नवेहि त्ति । मए भणियं-देव ! अलमन्तणं ति, जइ ममोवरि बहुमाणो देवस्स, ता इमं चेव संपाडेउ देवो। राइणा भणियं-अलंघणीयवयणो तुम ति, तुमं चेव जा गासि । तओ मए 'देवपसाओ' त्ति भणिऊण निवडिओ(अ) चलणेसु मोयाविओ जानदेवो, पेसिओ य अहं राइणा निययभवणं तओ सम्माणिऊण महया विभूईए गओ सभवणं ति । जाओ ष लोयवाओ, अहो ! जन्नदेवस्स जहन्नत्तं। समुप्पन्नो य मे निव्वेओ। पेच्छ, ईइसाणं पि मित्ताणं ईइसो परिणामो ति । अहो ! असारया संसारस्स, विचित्तया कम्मपरिणईए, दुल्लक्खाणि पाणिचित्ताणि । ता न याणामो किमेत्थ जुत्तं ति।
एत्थंतरम्मि य समागओ तत्थ सुगिहियनामो अग्गिभूई नाम गणहरो। ठिओ य नयरुज्जाणे दिट्ठो म ए बाहिरियागएणं । जाओ य मे तं पइ बहुमाणो, पणमिओय सो मए, धम्मलाभिओ य तेणं उवविट्ठो तस्स पायमूले । पुच्छिमो भयवं सव्वदुक्खविउडणसमत्थं धम्मं । साहिओ भगवया
मुच्यतां यज्ञदेवः। राज्ञा भणितम् -सार्थवाहपुत्र! न युक्तमेतद्, दुराचार: खल्वेषः, ततोऽन्यद् विज्ञापयेति । मया भणितम् -देव ! अलमन्येनेति, यदि ममोपरि बहुमानो देवस्य, तत इदमेव सम्पादयत देवः। राज्ञा भणितम-अलसनीयवचनस्त्वमिति, त्वमेव जानासि । ततो मया 'देवप्रसादः' इति भणित्वा, निपत्य चरणयोः, मोचितो यज्ञदेवः, प्रेषितश्चाहं राज्ञा निजभवनं, ततः सन्मान्य महत्या विभूत्या गत स्वभवनमिति । जातश्च लोकवादः, अहो यज्ञदेवस्य जघन्यत्वम् । समुत्पन्नश्च मे निर्वेदः । पश्य, ईदृशानामपि मित्राणामीदृशः परिणाम इति । अहो ! असारता संसारस्य, विचित्रता कर्मपरिणत्याः, दुर्लक्ष्याणि प्राणिचित्तानि । ततो न जानीमः किमत्र युक्तमिति । ___अत्रान्तरे च समागतस्तत्र सुगृहीतनामा अग्निभूतिर्नाम गणधरः । स्थितश्च नगरोद्याने। दृष्टश्च मया बहिरागतेन । जातश्च मे तं प्रति बहुमानः, प्रणतश्च स मया, धर्मलाभितश्च तेन, उपविष्टस्तस्य पादमूले । पृष्टो भगवान् सर्वदुःखविकुटनसमर्थं धर्मम् । कथितो भगवता क्षमादिकः
निवेदन किया, “महाराज ! मेरे इस अपराध को क्षमा करें, यज्ञदेव को छोड़ दें।" राजा ने कहा, "वणिकपुत्र ! यह उचित नहीं है, यह दुराचारी है अतः कोई दूसरा निवेदन करो।" मैंने कहा, "इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। यदि महाराज मुझे बहुत मानते हों तो महाराज यही करें।" राजा ने कहा, "आपके कथन का उल्लंघन नहीं किया जा सकता अतः तुम्हीं जानो।" तब मैंने 'महाराज ने कृपा की' ऐसा कहकर दोनों चरणों में गिरकर यज्ञदेव को छुड़ा लिया। राजा मुझे ससम्मान बहुत बड़ी विभूति के साथ अपने घर भेजकर, अपने भवन चला गया। लोगों में चर्चा फैल गयी, ओह ! (इस) यज्ञदेव की नीचता (देखो) ! मुझे विरक्ति हो गयी-देखो ऐसे मित्रों का भी ऐसा परिणाम होता है। ओह ! संसार की असारता, कर्मों के फल की विचित्रता तथा प्राणियों के चित्त के खोटे लक्ष्य आश्चर्यजनक हैं । अतः नहीं जानता हूँ, यहाँ क्या युक्त है ? .
इसी बीच वहाँ पर सुगृहीत नाम वाले अग्निभूति नाम के गणधर आये। नगर के उद्यान में ठहर गये । मैंने बाहर से आते हए देखा। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान पैदा हआ। उनको मैंने प्रणाम किया। उन्होंने मुझे धर्मलाभ दिया। मैं उनके पादमूल में बैठ गया। भगवान से मैंने समस्त दु.खों को नष्ट करने में समर्थ धर्म
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org