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________________ बीको भयो ] भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्नोति । इयरो विय तओ नरगाओ उच्चट्टिऊण आहेडगसुणश्रो भबिय मरिऊण तिसागरोवमाऊ तत्थेव उववज्जिऊण तओ य उच्वट्टो नाणातिरिएस आहिडिऊण तत्थेव रयणपुरे तायघरदासीए नम्मयः भिहाणाए सुयत्ताए उववन्नोति । उचियसमयम्मि जाया अम्हे, पत्ता बालभावं । पइट्टावियाई नामाई, मज्झ चंदसारो, इयरस्स अणहगोति । पत्ता य जोन्वणं । कओ मए दारसंगहो । एवं च विसयासत्ता चिट्ठामो । पुव्वभवन्भासओ य न इमस्स ममोवरि वंचणापरिणामो अवेइ । अन्नया य आगो तत्थ मासकष्पबिहारी भयवं विजयबद्धणार्यार पवन्नो य मए इमस्स पायमूले सावगधम्मो । अन्नया य तं पुरं दीहदंडजत्तागए नरवइम्मि, गामंतरगए अम्हे विभकेउनामेण सवरसेणावइणा हयविहयं काऊण अवणीओ कोइ लोओ । सुयं च अम्हहिं । समागया तं पुरं । दिट्ठे च मसाणागारमणुर्गारितं, गवेसावियं माणुसं जाव सव्वमेव धरइ, नवरं चन्दकता मे भारिया अवड्ड त्ति । तओ समुष्वन्ना मे अरई, जाया य चिंता - हा ! कहं सा तबस्सणी ममादिविओगा पाणे धारिस्सइ त्ति । एत्थंतरम्मि य भणिओ देवसम्माभिहाणेणं वुड्ढ । भार्यायाः कुक्षौ पुत्रत्वेनोपपन्न इति । इतरोऽपि च ततो नारकादुद्वृत्त्य आखेटकशुनको भूत्वा मृत्वा त्रिसागरोपमा युस्तत्रैवोपपद्य ततश्चोद्वृत्तो नानातिर्यक्षु आहिण्ड्य तत्रैव रत्नपुरे तातगृहदास्यां नर्मदाऽभिधानायां सुतत्वेनोपपन्न इति । उचितसमये जातौ च आवाम्, प्राप्तौ च बालभावम् । प्रतिष्ठापिते नामनी, मम चन्दसार:, इतरस्य अणहक (अनधक) इति । प्राप्तौ च यौवनम् । कृतो मया दारसंग्रहः एवं च विषयासक्तौ तिष्ठावः । पूर्वभवाभ्यासतश्च नास्य ममोपरि वञ्चनापरि णामोऽपैति । अन्यदा च आगतस्तत्र मासकल्पविहारी भगवान् विजयवर्द्धनाचार्य: । प्रपन्नश्च मया अस्य पादमूले श्राववधर्मः । अन्यदा च तत्पुरं दीर्घदण्डयात्रागते नरपतौ, ग्रामान्तरगतेषु अस्मासु विन्ध्यकेतुनाम्ना शबरसेनापतिना हतविहतं कृत्वाऽपनीतः कोऽपि लोकः । श्रुतं चास्माभिः । समागता तत् पुरम् दृष्टं च श्मशानाकारमनुकुर्वत्, गवेषितं मानुषं यावत्सर्वमेव धरति, नवरं चन्द्रमे भार्या अपहृतेति । ततः समुत्पन्ना मेऽरतिः, जाता च चिन्ता हा ! कथं सा तपस्विनी ममादृष्टवियोगा प्राणान् धारयिष्यतीति । अत्रान्तरे च भणितो देवशर्माभिधानेन वृद्धब्राह्मणेन - सार्थ , ११६ दूसरा भी नरक से निकलकर शिकारी का कुत्ता होकर पुनः मरकर तीन सागर की आयु वाले उसी नरक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर तियंच योनियों में भ्रमणकर उसी रत्नपुर नगर में पिताजी की गृहदासी, जिसका नाम नर्मदा था, के पुत्र रूप में आया । उचित समय पर हम दोनों उत्पन्न हुए, बाल्यावस्था को प्राप्त हुए। दोनों का नामकरण हुआ - मेरा 'चन्दनसार' और दूसरे का 'अनधक' । दोनों यौवनावस्था को प्राप्त हुए । मैंने विवाह किया । इस प्रकार विषयासक्ति में रहे । पूर्वभव के अभ्यासवश मेरे प्रति छलकपट करने का ( इसका ) भाव दूर नहीं हुआ था । एक बार वहाँ एक माह विहार करने का नियम रखने वाले भगवान् विजयवर्द्धन नाम के आचार्य आये। मैंने इनके पादमूल में श्रावकधर्म ग्रहण किया। एक बार जब यात्रा (दीर्घकालीन विजययात्रा) पर गया हुआ था और हम लोग दूसरे गाँव शबरों के सेनापति ने क्षत-विक्षत कर कुछ आदमियों का अपहरण कर लिया। में आये और श्मशान के आकार का अनुसरण करने वाले उस नगर को देखा सभी थे, केवल मेरी पत्नी चन्द्रकान्ता का अपहरण किया गया था । तब मुझे अरति ! कैसे वह बेचारी मेरे अदृष्ट वियोग के कारण प्राण धारण करेगी । इसी । हाय Jain Education International For Private & Personal Use Only उस नगर का राजा दीर्घदण्ड गये हुए थे तब विन्ध्यकेतु नामक हम लोगों ने सुना । उस नगर मनुष्यों की खोज की गयी । और चिन्ता उत्पन्न हुईबीच देवशर्मा नामक www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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