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समराइज्चकहा भणियं-नरवइसमाएसाओ एवं सत्थवाहपुत्तं गेण्हिडं ति । कारणिएहि भणियं-अत्थि तुम्हाणं किंचि दविणजायं? तेहि भणियं-'अत्थि' । कारणिएहिं भणियं किं तयंति? तेहिं भणियं-इमस्स सत्थवाहपुत्तस्स नरवइविइण्णं रायालंकरण ति। कारणिएहि भणियं-पेच्छामो ताव केरिसं? तओ विसुद्धचित्तयाए दंसियं । पच्चभिन्नायं भंडारिएण। भणियं च तेण--- एयं पि देवसंतियं चेव कालंतरावहरियं रायालंकरणयं ति। तओ संखद्धा ते पुरिसा पुच्छिया य पंचउलेण। भहा, अवितहं कहेह कओ तुम्हाणमेयं ? तेहि भणियं-किमन्नहा तुम्हाणं निवेईथइ ? तओ कारणिहिं निवेइओ एस वत्तो चंडसेणस्स । 'सो चेव मे राया सव्वमेयं कारवेई' त्ति कुविओ एसो। नयाविथा इमे चारयं; 'पावियवो एएस सयासाओ सव्वो अत्थो' त्ति घराविया पयत्तेण।
हिं च परमदुक्खिया जाव कइवदियहे परिवसंति, ताव तत्थेव रायपुरिसेहिं परिव्वायगरूवधारी रयणीए परिब्भमंतो सरित्थो चेव पहिओ महाभयंगो त्ति । नीओ मंतिसमीवं । तेण वि य 'लिंगधारी चोरियं करेइ त्ति, नत्थि से अन्नं पि अकरणिज्ज' ति कलिऊण वज्झो समाणत्तो। नरपतिसमादेशात् सार्थवाहपुत्रं ग्रहीतुमिति। कारणिकैणितम्-अस्ति युष्माकं किंचिद् द्रविणजातम् तैर्भणितम्-अस्ति । कारणिकैर्भणितम्-किं तद्' इति ? तैर्भणितम्-अस्य सार्थवाहपुत्रस्य नरपतिवितोर्णं राजाऽलङ्करणमिति। कारणिकर्भणितम्-प्रेक्षामहे तावत् कीदशम् ? ततो विशुद्धचित्ततया दशितम् । प्रत्यभिज्ञातं भाण्डागारिकेन । भणतं च तेन-एतदपि देवसत्कमेव कालान्तरापहृतं राजाऽलङ्करणमिति। ततः संक्षुब्धास्ते पुरुषाः पृष्टाश्च पञ्चकुलेन-भद्रा ! अवितथं कथयत, कुतो युष्माकमेतत् ? तैर्भणितम्--किमन्यथा युष्माकं निवेद्यते ? ततः कारणिकैनिवेदित एष वृत्तान्तश्चण्डसेनाय । स एव मम राजा सर्वमेतत् कारयति' इति कुपित एषः । नायिता इमे चारकम्, 'प्रापयितव्य एतेषां सकाशात् सर्वोऽर्थः' इति धारिताः प्रयत्नेन ।
तत्र च परमदुःखिता यावत् कतिपय दिवसान् परिवसन्ति, तावत् तत्रैव राजपुरुषः परिव्राजकरूपधारी रजन्यां परिभ्रमन् सरिक्थ एव गृहीतो महाभुजङ्ग इति। नोतो मन्त्रिसमापम्। तेनापि च 'लिङ्गधारी चौर्यं करोति इति नास्ति तस्य अन्यदपि अकरणीयम्' इति कलयित्वा वध्यः समाज्ञप्तः। को।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"किस लिए ?" उन्होंने कहा- "राजा की आज्ञा से वणिकपुत्र को ले जाने के लिए।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"तुम्हारे पास कुछ धन है ?" उन्होंने कहा-"है ।" न्यायकर्ताओं ने कहा-"वह क्या ?" उन्होंने कहा- "इस सार्थवाह पुत्र का, राजा का दिया हुआ राजकीय अलंकार है।" न्यायकर्ताओं ने कहा--"देखेंगे, कैसा है ?" तब विशुद्धचित्त से दिखलाया । भण्डारी ने पहचान लिया। उसने कहा- "महाराज का कुछ समय पहले अपहरण किया हुआ यह अलंकार है।" तब वे पुरुष क्षुब्ध हुए और पंचों ने पूछा-"भद्रो ! सच-सच बताओ, आपको यह कहाँ से मिला?" उन्होंने कहा-"आप लोगों से क्याों झूठ बोलें ?" तब न्यायकर्ताओं ने यह वृत्तान्त चण्डसेन से निवेदन किया। वही राजा मेरा सब कुछ कराता है-ऐसा सोचकर यह क्रुद्ध हुआ। इन लोगों को कारागार ले गये, इनके साथ सब धन पहुंचा दिया जाय-इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक रखा।
वहां पर अत्यधिक दुःख से कुछ दिन बीत, तभी राजगुरुषों ने परिव्राजक रूप को धारण कर रात्रि में भ्रमण करते हुए धन के साथ चोर को पकड़ा।न्त्री के समाप ले जाया गया। उसने भी लिंगधारी चोरी करता है अतः उसके लिए कुछ भी अकरणीय नहीं है-ऐसा मानकर वध की आज्ञा दे दी।
१. कोइसं-क।
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