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________________ चमत्यो भवो] २५६ कारिणो चेट्ठियस्स, किमंग पुण भवओ जीवियब्भहियसुयजीवियदायगस्स। धणेण भणियंदेवदंसणाओ वि अवरं करणिज्ज ति ? देव, संपुण्णा मे मणोरहा देवदंसणेणं ति। तओ राइणा दाऊणमणग्धेयं निययमाहरणं विइण्णपच्चइयनरसहाओ पेसिओ सुसम्मनयरं। तओ आपुच्छिऊण नरवइं निग्गओ सह रायपुरिसेहिं धणो। पत्तो य कइवयदियहि गिरिथलयं नाम पट्टणं । तत्थ वि य तम्मि चेय दियहे राइणो चंडसेणस्स मुटुं सव्वसारं नाम भंडागारभवणं । तओ आउलीहूया नायरया नगरारक्खिया य । गवेसिज्जति चोरा, मुद्दिज्जति भवणवीहीओ, परिक्खिज्जति आगंतुगा । एत्थंतरम्मि य संपत्तमेत्ता चेव गहिया इमे रायपुरिसेहि, भणिया य तेहिं । भद्दा, न तुब्भेहिं कुप्पियन्वं । साहिओ वुत्तंतो। तेहि भणियं-को एस अवसरो कोवस्स? तहि वच्चामो जत्थ तुम्भे नेह ति। नीया पंचउलसमीवं. पुच्छिया पंचउलिएहि 'कओ तुम्भे' ति ? तेहिं भणियं-'सावत्थीओं' । कारणिएहि भणियं -- 'कहि गमिस्सहत्ति ? तेहि भणियं--'सुसम्मनयरं' । कारणिएहि भणियं-'किनिमित्तंति ? तेहि तस्यापि समीक्षितकारिणश्चेष्टितस्य किमङ्ग पुनर्भवतो जीविताभ्यधिकसुतजीवितदायकस्य । धनेन भणितम्-देवदर्शनादपि अपरं करणीयमिति ? देव ! सम्पूर्णा मे मनोरथा देवदर्शनेनेति । ततो राज्ञा दत्त्वाऽनयं निजकमाभरणं वितीर्णप्रत्ययितनरसहायः प्रेषितः सुशर्मनगरम् । तत आपच्छ्य नरपति निर्गतः सह राजपुरुषर्धनः । प्राप्तश्च कतिपयदिवसैगिरिस्थलं नाम पट्टनम् । तत्रापि च तस्मिन्नेव दिवसे राज्ञश्चण्डसेनस्य मुष्टं सर्वसारं नाम भाण्डागारभवनम् । तत आकुलीभूता नागरका नगरारक्षकाश्च । गवेष्यन्ते चौराः, मुद्यन्ते भवनवीथयः, परीक्ष्यन्ते आगन्तुकाः। अत्रान्तरे च सम्प्राप्तमात्रा एव गृहीता इमे राजपुरुषः, भणिताश्च तैः । भद्रा ! न युष्माभिः कुपितव्यम् । कथितो वृत्तान्तः । तैर्भणितम्-क एषोऽवसरः कोपस्य ? तत्र व्रजामो यत्र यूयं नयतेति । नीताः पञ्चकुलसमीपम् । पृष्टाश्च पञ्चकुलिकैः कुतो यूयम्'-इति। तैर्भणितम्-'श्रावस्तीतः'। कारणिकैर्भणितम्-'कुत्र गमिष्यथ' इति ? तैर्भणितम्-'सुशर्मनगरम्' । कारणिकैर्भणितम्-'किनिमित्तम्'-इति ? तैर्भणितम्क्या ? विचारपूर्वक कार्य करने वाले उसके लिए भी यह थोड़ा है, आपकी तो बात ही क्या है, जिसने (मेरे) प्राण से भी अधिक (प्यारे) पुत्र को जीवन दे दिया।" धन ने कहा-"महाराज ! महाराज के दर्शन से मेरे मनोरथ पूर्ण हो गये।" अनन्तर राजा ने अपने बहुमूल्य आभूषण देखकर विश्वस्त पुरुषों के साथ सुशर्मनगर को भेज दिया। राजा से पूछकर राजपुरुषों के साथ धन निकला। ___ कुछ दिनों में गिरिस्थल नामक नगर को आया। वहां पर भी उसी दिन राजा चण्डसेन के सर्वसार नामक भण्डारगृह की चोरी हो गयी । उससे नागरिक और नगररक्षक आकुल हो गये। चोर खोजे जा रहे थे, भवनों की गलियाँ मूंदी जा रही थीं, आगन्तुकों की परीक्षा की जा रही थी। इसी बीच में आते ही इन लोगों को राजपुरुषों ने पकड़ लिया और उनसे कहा-"भद्र लोगो ! आप लोग क्रुद्ध मत होना।"(राजपुरुषों ने) वृत्तान्त कहा। उन्होंने उत्तर दिया-"यहाँ क्रोध की क्या बात है ? जहाँ पर आप लोग ले जायेंगे वहाँ चलते हैं। वे लोग इन्हें पंचकुल (पंचायत) के पास ले गये। पंचों (पंचकुलिकों) मे पूछा-"तुम सब कहाँ से आये हो ?" उन्होंने कहा"श्रावस्ती से।" कारणिकों (न्याकर्ताओं-पंचों) ने कहा-"हो जाओगे ?" उन्होंने कहा-"सुशर्मनगर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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