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________________ २५५ [समहराइचकहा विन्नवेहि एयं वुत्तंतं तायस्स एवं सुणिकण देवो पमाणं ति । तओ ससंभंतो 'इमीए चेव रयणावलावृत्तंतमुवलभिस्सं'ति उट्रिओ राया, पयट्टो य मेहवणं, पत्तो य महया चडगरेणं। दिट्ठा य रायधूया। अलंकारेऊण य पवेसिया सात्थि । पुच्छिया य रयणावलीवृत्तंतं । साहिओ य तीए । जहा-तम्मि वहणभंगदियहे चयलइयाए समप्पिया संगोविया य तौए उत्तरीयबंधणेण । तओ य विवन्ने जाणवत्ते कायंतवसविउत्ते य परियणे न याणामि कोइसो से विपरिणामो ति । तओ राइणा घणमवलोइऊण भणियं-भद्द, कहं तह एसा हत्थगोयरं गय त्ति? धणेण भणियं-देव, समद्दतीरे सयं गहणेणं ति। राइणा चितियं-विवन्ना चूयलइया, कहमन्नहा सयं गहणं ति। भणियं च-भद्द, अवि दिळें तए तत्थ किचि कंकालपायं ति । धणेण भणियं-देव, दिलैं; अओ चेव परदव्वावहारेण अकज्जकारिण मप्पाणं मन्नेमि ति। राइणा भणियं -न एरिसं परदव्वावहरणं गिहिणो; ता अलमईयवचिंतणेणं । भण, कि ते करेमि त्ति ? धणेण भणियं-कयं देवेण करणिज्जं, जं तस्स निओगकारिणो समीहियभहियमणोरहापूरणं ति। राइणा भणियं-भद्द, किं तेण; थेवं खु णं तस्स वि समिक्खियतातस्य । एतच्छ त्वा देवः प्रमाणमिति । ततः ससम्भ्रान्तः 'अनयैव रत्नावलीवृत्तान्तमुपलप्स्ये' इत्युत्थितो राजा, प्रवृत्तश्च मेघवनम्, प्राप्तश्च महता चटकरेण (वेगेन)। दृष्टा च राजदुहिता। अलङ्कार्य च प्रवेशिता श्रावस्तीम् । पृष्टा च रत्नावलीवृत्तान्तम् । कथितश्च तया-यथा तस्मिन् वहनभङ्गदिवसे चूतलतिकार्य समर्पिता, संगोपिता च तयोत्तरीयबन्धनेन । ततश्च विपन्ने यानपात्र कृतान्तवश वियुक्ते च परिजने न जानामि कीदृशस्तस्य विपरिणाम इति ततो राज्ञा घनमवलोक्य भणितम्-भद्र ! कथं तवैषा हस्तगोचरं गतेति ? धनेन भणितम्-देव ! समुद्रतीरे स्वयं ग्रहणेनेति । राज्ञा चिन्तितम्-विपन्ना चूतलतिका, कथमन्यथा स्वयंग्रहणमिति । भणितं च-भद्र ! अपि दृष्टं त्वया तत्र किञ्चित्कङ्कालप्रायमिति ? धनेन भणितम्-देव ! दृष्टम् , अत एव परद्रव्यापहारेणाकार्यकारिणमात्मानं मन्ये इति । राज्ञा भणितम्-नेदशं परद्रव्यापहरणं गृहिणः, ततोऽलमतीतवस्तुचिन्तनेन । भण, किं तव करोमीति ? धनेन भणितम्-कृतं देवेन करणीयम्, यत् तस्य नियोगकारिणः समीहिताभ्यधिकमनोरथापूरणमिति । राज्ञा भणितम्-भद्र ! किं तेन ? स्तोकं खलु तत् प्रमाण हैं अर्थात् अब जो महाराज को करना हो, वह करें।" तब घबड़ाकर इसी से ही रत्नावली का वृत्तान्त प्राप्त करूँगा-ऐसा सोचकर राजा उठा और मेघवन को चला गया। बड़े वेग से गया और राजपुत्री को देखा। राजा ने अलंकृत कर उसे धावस्ती में प्रवेश कराया और रत्नावली का वृत्तान्त पूछा । उसने कहा कि जहाज टूट जाने के दिन (उसने रत्नावली को) चूतलतिका को समर्पित कर दिया था और उसने उसे अपने दुपट्टे में बांधकर छिपा लिया । अनन्तर जहाज नष्ट हो जाने पर मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा वियोग को प्राप्त हुए बन्धुबाधवों को मैं नहीं जानती हूँ, उसकी क्या परिणित हुई ?" तब राजा ने धन को देखकर कहा-“भद्र! यह तुम्हारे हाथ कैसे माथी ?" धन ने कहा-"महाराज! समुद्र के किनारे मैंने इसे स्वयं ग्रहण किया।" राजा ने सोचा-चूतलतिका मृत हो गयी अन्यथा अपने आप ग्रहण कैसे किया? उसने पूछा- "भद्र! वहाँ पर तुमने कंकाल जैसी कोई वस्तु देखी ?" धन ने कहा-"महाराज! देखी है, अतएव दूसरे के धन का अपहरण करने वाला अपने आपको अकार्य करने वाला मानता है।" राजा ने कहा- "गृहस्थ लोगों को इस प्रकार चोरी का दोष नहीं लगता है, अत: अतीत वस्तु को सोचना ध्यर्थ है । कहो तुम्हारा क्या-क्या (कार्य) करें ?" धन ने कहा-"महाराज ने करने योग्य कार्य को कर दिया, जो कि उस कार्य में रत हुए व्यक्ति का इच्छा से भी अधिक मनोरथ पूरा कर दिया। राजा ने कहा-"भद्र ! उससे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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