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________________ पंचमो भवो ] ४०६. पुण ते अणन्मसरि सागिइपिसुगियमहापुरिसभावस्स इमं ईइस इयरपुरिसागुरूवं चेट्ठियं, कि बा एत्थ कारणं; साहेहि ताव, जइ अकहणीयं न होइ । मए भणियं-कि नाम परोवयारनिरयस्स दोसवज्जिणो विइयपाणिधम्मस्स सज्जणस्सावि अकहणीयं । ता सुणउ भद्दो। पिययमाविओयवावायणुज्जयस्स साहियं मे रिसिणा इमं मणोरहावूरयं कामियं पडणं । तओ 'जम्मंतरम्मि वि पिययमाजोओ हवेज्ज त्ति काऊण पणिहाणं विमक्को अप्पा । एयं मे एत्थ कारणं ति । तओ ईसि विहसिऊण भणियं विज्जाहरेण-अहो णु खलु नत्थि दुक्करं सिणेहस्स। सिणेहो हि नाम मूलं सव्वदुक्खाणं निवासो अविवेयस्स अग्गला निव्वईए बंधवो कुगइवासस्स पडिवक्खो कुसलजोयाणं देसओ संसाराडवीए वच्छलो असच्चववसायस्स । एएण अभिभया पाणिणो न गणंति आयइं, न जोयंति कालोचियं, न सेवति धम्मं, न पेच्छंति परमत्थं, महालोहपज्जरगया विय केसरिणो समत्था वि सीयंति त्ति। सविसओ वि एस एवं पावो, किमंग पुण अविसयो। ता परिच्चय इमं अविसयसिणेहं । आलोएहि विवेयदीवालोएण निन्नासिऊण मोहतिमिरं, कहं विचित्तकम्मपरिणामवसयाण जीवाणं पडणाणुपुनस्तेऽनन्यसदृशाकृतिपिशुनितमहापुरुषभावस्य इदमीदशभितरपुरुषानुरूपं चेष्टितम्, किंवाऽत्र कारणम्, कथय तावद यद्यकथनीयं न भवति । मया भणितम्-किं नाम परोपकारनिरतस्य दोषवजिनो विदितप्राणिधर्मस्य सज्जनस्याप्यकथनीयम्। तत: शृणोतु भद्रः । प्रियतमावियोगव्यापादनोद्यतस्य कथितं मे ऋषिणा इदं मनोरयापूरकं काभित पतनम् । ततो 'जन्मान्तरेऽपि प्रियतमायोगो भवेद्' इति कृत्वा प्रणिधानं विमुक्त आत्मा। एतन्मेऽत्र कारणमिति । तत ईषद् विहस्य भणितं विद्याधरेण - अहो नु खलु नास्ति दुष्करं स्नेहस्य । स्नेहो नाम मूलं सर्वदुःखानां निवासोऽविवेकस्य अर्गला निवतेः बान्धवः कुगतिवासस्य प्रतिपक्षः कुशलयोगानां देशकः संसाराटण्या वत्सलोऽसत्यव्यवसायस्य । एतेनाभिभूताः प्राणिनो न गणयन्त्यायतिम्, न पश्यन्ति कालोचितम, न सेवन्ते धर्मम्, न प्रेक्षन्ते परमार्थम, महालोहपञ्जरगता इव केसरिणः समर्था अपि सीदन्तीति। सविषयोऽपि एष एवं पापः, किमङ्ग पुनरविषय इति । ततः परित्यजेममविषयस्नेहम् । आलोचय विवेकदीपालोकेन निश्यि मोहतिमिरम्, कथं विचित्रकर्मपरिणामवशगानां जीवानां पतनानुभावत ले गया और आश्वासन देकर बोला-'हे महाप्राण ! अन्य पुरुषों में न पायी जाने वाली आकृति के कारण जिसका महापुरुषपना सूचित हो रहा है ऐसे आपकी अन्य साधारण लोगों जैसी क्यों चेष्टा है, इसका क्या कारण है. यदि अकथनीय न हो तो कहो।' मैंने कहा-'परोपकार में रत, दोषों से रहित, प्राणियों के धर्म को न जाननेवाले सज्जनों से भी न कहने योग्य कोई बात है ? अतः भद्र ! सुनिए । प्रियतमा के वियोग के कारण (अपने आपको समाप्त करने के लिए उद्यत मुझसे ऋषि ने कहा था कि यह 'मनोरथापरक' नामक इष्ट पतन-स्थान है। अतः सरे जन्म में भी प्रियतमा का संयोग हो, ऐसा सोचकर समाधि लगाकर अपने आपको छोड़ दिया। यही मेरा कारण है।' तब कुछ हंसकर विद्याधर ने कहा-'ओह ! स्नेह के लिए कुछ भी दुष्कर नहीं है । स्नेह सभी दुःखों का मूल, अविवेक का निवास, निर्वृत्ति की आगल, कुगति बास का बन्धु, शुभयोग का विरोधी. संमारपी वम का पथप्रदर्शक, असत्य कार्य का प्रेमी है। इसके वशीभूत होकर प्राणी न तो भावीफल को गिनते हैं, न समयोचित काय को देखते हैं, न धर्म का सेवन करते है, न परमार्थ को देखते हैं। खोहे के बड़े पिंजड़े में गये हुए सिंह के समान समर्थ होते हुए भी कापते हैं (कष्ट उठाते हैं)। विषययुक्त स्नेह का यह इस प्रकार का पाप है फिर भविषय स्नेह की तो बात ही क्या है ? अतः इस विषयस्नेह को त्यागो। विवेकरूपी दीपक के प्रकाश को देखकर मोहरूपी पन्ध कार का नाश करो। अनेक प्रकार के कर्मों के परिणामवश चुत हुए जीवों की एक गति भववा एक समागम .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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