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________________ ४१. [समराधकहा हावओ एगा गई संगमो वा । तहाकम्मारिइभावे य कि इमिणा संरंभेण'। अहिलसियसाहगोवाओ वि य न दाणसोलतवे मोत्तूण एत्थ दिट्ठो पर मत्थपेच्छएहि ति। अन्नं साहेमि अहं पच्चयजणयं तु सव्वसत्ताणं। जं वित्तं वणियाणं अच्चंतविरुद्धयं सोम ॥४६६।। नेहेण पओसेण य भिन्नं काऊण एत्थ पणिहाणं । जह तं भज्जुपईय' निहणगयं तं निसामेहि ॥४६७॥ अस्थि इह मलयविसए कणियारसिवं नाम सन्निवेसो । तत्थ सब्भिलओ' नाम गाहावई। तस्स नामओ वि अमणुन्ना सोहा नाम भारिया। सो वुश इमीसे जीवियाओ वि इट्टयरो। ताणं चं परोप्परं विओदसणे बहु मन्नंताणमइक्तो कोइ कालो। अन्नया य आयणियं तेणं मणोहरापूरयं कामियं पडणं । जायानियओ' आगंतणं मा मम जम्मंतरम्मि वि एसा भारिया हवेज्ज'त्ति काऊण पणिहाण विमुकतो अप्पा, मओ य सो। मुणिओ य एस वुत्तंतो भारियाए । गहिया सोएणं । आगया एका गतिः समागमो वा । तथाकर्मपरिणतिभावे च किभनेन संरम्भेण । अभिलषितसाधकोपायोऽपि च न दानशीलतपांसि मुक्त्वाऽत्र दृष्टः परमार्थप्रेक्षकरिति । अन्यत्कथयाम्यहं प्रत्यपजनकंत सर्वसत्त्वानाम। यद् वृत्तं वणिजोरत्यन्तविरुद्धकं सौम्य ! ॥४६६॥ स्नेहेन प्रद्वेषेण च भिन्न कृत्वाऽत्र प्रणिधानम् । यथा तद् भार्यापत्योनिधनगतं तद् निशामय ॥४६७॥ अस्तीह मलयविषये कणिकारशिवं नाम सन्नि वे शः । तत्र सब्भिलको नाम गहपतिः । तस्य नामतोऽपि अमनोज्ञा सिंहा नाम भार्या । स पुनरस्या जोवितादपोष्टतरः । तयोश्च परस्परं वियोगदर्शने बह मन्यतोरतिक्रान्तः कोऽपि काल: । अन्यदा चारुणितं तेन मनोरथापूरकं कामितं पतनम् । जायानिर्वेदतश्चागत्य 'मा मम जन्मान्तरेऽप्येषा भार्या . वेद्' इति कृत्वा प्रणिधानं विमुक्त आत्मा, मतश्च सः । ज्ञातश्चैष वृत्तान्तो भार्यया । गृहोता शोकेन । आगतेदं पतनम् । भर्तृस्नेहतः कृतस्तया कैसे हो सकता है ? तथा कर्म की परिणति होने पर इस प्रकार के कार्य से क्या लाभ है ? यहाँ अभिलषित वस्तु का साधक उपाय परमार्थदर्शी लोगों ने दान, शील के अतिरिक्त अन्य नहीं देखा। व्यापारी की अत्यन्त विरुद्ध जो घटना हुई है-हे सौम्य ! सभी प्राणियों को विश्वास दिलाने वाली उस घटना को मैं कहता हूँ। स्नेह और द्वेष से यहाँ ध्यान लगाकर जिस प्रकार वे पति-पत्नी निधन को प्राप्त हुए, उसे सुनो ॥४६६-४६७॥ इस मलय देश में 'कर्णिकार शिव' नामक सन्निवेश है। वहाँ पर सब्भिलक नाम का गहपति था। उसकी नाम से भी असुन्दर सिंहा' नामक पत्नी थी। वह सभिलक इसके लिए प्राणों से भी अधिक प्यारा था । उन दोनों का वियोग रहते हुए कुछ समय व्यतीत हुआ । एक बार सभिलक ने 'मनोरथापूरक' स्थान के विषय में सुना । पत्नी के प्रति विरक्ति होने के कारण 'दूसरे जन्म में भी यह मेरी भार्या न हो'-ऐसा सोचकर समाधि लगाकर (उसने) अपने आपको छोड़ दिया और वह मर गया । यह वृतान्त भार्या को १. समारंभेणं-क-द्ध । २. भज्जपईयं-ब । भज्जूपईयं-7। ३. सविसप्रो-ग । सभिलमोके । ४. पायामिवेएणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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