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________________ ४०८ [समराइचकहा न परिच्चत्तपाणो वि जीवो अकाऊण कुसलसंचयं समोहियं संपावेइ ति। मए भणियं भयवं, एवमेयं; तहावि न सक्कुणोमि पिययमाविरहजलणजालावलीपरियरिओ' खणे खणे मरणाइरित्तं द्रुक्खमणुहविउं । ता अवस्सं मरणुज्जयस्स आचिक्ख भयवं, केण उण उवाएण इयाणि चेव मे लोयंतरगया वि पिययमाए संजोगो हवेज्ज त्ति । तेण भणियं-जइ एवं, ता सुण । अत्थि इहेच मलयपव्वए मणोरहापूरयं नाम सिहरं । तं च किल कामियं पडणं । ता एयमारुहिय काऊण जहोचियं पणिहाणं पाविहिसि समीहियं ति । तओ मए पणमिऊण चलणजुयलं पुच्छिओ इसी ... भयवं, कहि पुण तमुद्देसं मणोरहापूरयं ति । दंसियमणेण । पयट्टो अहयं, पत्तो तइयदियहे । आरूढो सप्पुरिसाहिमाणं व तुंगं सिहरं । ‘जम्मंतरे वि तीए समागमो हवेज्ज' ति भणिय कओ पणिही, विमुक्को अप्पा । 'अहो पमाओ' ति भणमाणेण गयणयलचारिणा धुव्वंतचीणंसुएणं वामपासनिमियासिणा संभमोवयणवियलियमुंडमालेण चंदाणुगारिणा अच्चंतसोमदंसणेण पडिच्छिओ विज्जाहरेण, नोओ सहावसीयलं चंदकंतमणिसणाहं चंदणलयाहरयं । समासासिऊण भणिओ य तेण । भो महासत्त, किं कृत्वा कुशल संचयं समीहितं सम्प्राप्नोतीति । मया भणितम्-भगवन् ! एवमेतद्, तथाऽपि न शक्नोमि प्रियतमाविरहज्वलनज्वालावलिपरिवृतः क्षणे क्षणे मरणातिरिक्तं दुःखमनुभवितुम । ततोऽवश्यं मरणोद्यतस्याचक्ष्व भगवन् ! केन पुनरुपायेन इदानीमेव मे लोकान्तरगताया अपि प्रियतमाया: संयोगो भवेदिति । तेन भणितम्-यद्येवं ततः शृणु । अस्ति इहैव मलयपर्वते मनोरथापूरकं नान शिखरम् । तच्च किल कामितं पतनम् । तत एतदारुह्य कृत्वा यथोचितं प्रणिधानं प्राप्स्यसि समोहतमिति । ततो मया प्रणम्य चरणयुगलं पृष्ट ऋषिः-भगवन् ! कुत्र पुनस्तदुद्देशं मनोरथापूरकमिति । दर्शितमनेन । प्रवृत्तोऽहम्, प्राप्तस्तृतीय दिवसे । आरूढः सत्पुरुषाभिमानमिव तुङ्ग शिखरम् । 'जन्मान्तरेऽपि तया समागमो भवेद्' इति भणित्वा कृतःप्रणिधिः, विमुक्त आत्मा। 'अहो प्रमादः' इति भणता गगनतलचारिणा धूयमानचीनांशुकेन वामपार्श्वन्यस्तासिना सम्भ्रमावपतनविचलितमुण्डमालेन चन्द्रानुकारिणाऽत्यन्तसौम्य दर्शनेन प्रतीष्टो विद्याधरेण, नीतः स्वभावशीतलं चन्द्रकान्तमणिसनाथं चन्दनलतागहम् । समाश्वास्य भणितश्च तेन-भो महासत्त्व ! कि शुभकर्मों का संचय किये बिना इष्ट को नहीं प्राप्त करता है।' मैंने कहा-'भगवन् ! यह ठीक है किन्तु प्रियतमा की विरहरूपी अग्नि की ज्वाला में घिरकर मरण के अतिरिक्त प्रतिक्षण दु:ख को सहने में समर्थ नहीं हूँ। अतः अवश्य ही मरने के लिए उद्यत मुझसे भगवान कहें कि किस उपाय से इसी समय लोकान्तर को गयी हुई भी प्रियतमा का संयोग होगा।' उन्होंने कहा- 'यदि ऐसा है तो सुनो ! इसी मलयपर्वत पर 'मनोरथापूरक' नामका शिखर है। वहीं गिरने की कामना करनी चाहिए। इस पर चढकर यथोचित समाधि लगाकर इष्ट । करोगे।' तब मैंने दोनों चरणों में प्रणाम कर ऋषि से पूछा - 'भगवन् ! वह मनोरथापूरक स्थान कहाँ है ?' उन्होंने चल पड़ा। तीसरे दिन पहँचा । सत्पुरुष के अभिमान के समान ऊँचे शिखर पर चढ़ गया। 'दसरे जन्म में भी उसके साथ समागम हो' ऐसा कहकर समाधि लगायी (और) अपने आपको छोड़ दिया। 'ओह ! प्रमाद है'-ऐसा कहकर जो आकाश में विचरण कर रहा था, जो चीनीवस्त्र को फहरा रहा था, बायीं ओर जिसने तलवार रखी थी, घबड़ाहट से उतरने से जिसकी मुण्डमाला चंचल हो उठी थी, जो चन्द्र के समान अत्यन्त सौम्य दर्शन था, ऐसे विद्याधर ने पकड़ लिया (और वह) स्वभाव से शीतल, चन्द्रकान्तमणि से युक्त चन्दनलता-गृह में १. परियमो-क, 2. तमुद्देस-क, ३. ..... माणमिवोत्तुगं-छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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