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पढमो भयो
अह तेसु तियससुंदरिनिवहेण समं पुरासुकयपुण्णो। चिटुइ परितुहुमणो भुजतो दिव्ववर भोए ॥११६॥ भुंजिंसु' सो वि दिने भोए चंदाणणे विमाणंमि । सुरसुदरीहि सद्धि जहिच्छिए सागरमणूणं ॥११७॥
अथ तेषु त्रिदशसुन्दरी निवहेन समं पुरा सुकृतपूर्णः (पुण्यः)। तिष्ठति परितुष्टमना भुजानो दिपवरभोगान् ॥११६।। अभुङ्क्त सोऽपि दिव्यान् भोगान् चन्द्रानने विमाने । सुरसुन्दरीभिः सार्द्ध यथेच्छितान् सागरमनूनम् ॥११७॥
वहाँ जीव पूर्व पुण्य के फलस्वरूप देवांगनाओं के साथ सन्तुष्ट मनवाला होकर दिव्य, उत्कृष्ट भोगों को भोगता हुआ रहता है । गुणसेन के जीव ने भी देवांगनाओं के साथ इच्छानुसार दिव्यभोगों को चन्द्रानन विमान में एक सागर पर्यन्त भोगा।
१. भुजिंतु।
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