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________________ २०४ [समराइचकहा अंबाए भणियं-पुत्त, परिणामविसेसओ पुण्णपावे, एसा य धम्मसुई। सुण जस्स न लिप्पइ बुद्धी हंतूण इमं जगं निरवसेसं । पावेण सो न लिप्पइ पंकयकोसो व्व सलिलेणं ॥३८०॥ अहवा जइ वि पावं हवइ, तह वि देहारोग्गनिमित्तं कीरउ इमं । पावं पि हु कायव्वं बुद्धिमया कारणं गणंतेणं । तह होइ किपि कज्ज विसं पि जह ओसहं होइ ॥३८१॥ मए भणियं-- अंब, जं तए आणत्तं 'परिणामविसेसओ पुण्णपावे' त्ति, एत्थ अकज्जपवत्तणे कोइसो परिणामो त्ति? अन्नं च सुण पुण्णमिणं पावं चिय सेवंतो तप्फलं न पावेइ। हालाहलविसभोई न य जीवई अमयबद्धी वि॥३८२॥ न य तिहयणे वि पावं अन्नं पाणाइवायओ अत्थि। जं सवे वि य जीवा सुहलवतण्हालुया इहइं ॥३३॥ अम्बया भणितम्-पुत्र ! परिणामविशेषतः पुण्यपापे, एषा च धर्मश्रुतिः। शृणु -. यस्य न लिप्यते बुद्धिहत्वेदं जगद् निरवशेषम् ।। पापेन न स लिप्यते पङ्कजकोश इव सलिलेन ।।३८०॥ अथवा यद्यपि पापं भवति तथाऽपि देहारोग्यनिमित्तं क्रियतामिदम् । पापमपि खलु कर्तव्यं बुद्धिमता कारणं गणयता। तथा भवति किमपि कार्य विषमपि यथौषधं भवति ॥३८१॥ मया भणितम्-यत् त्वयाऽज्ञप्तं-परिणामविशेषतः पुण्यपापे इति, अत्र अकार्यप्रवर्तने कीदृशः परिणाम इति ? अन्यच्च शृणु पण्यमिदं पापमेव सेवन् तत्फलं न प्राप्नोति । हालाहलविषभोजी न च जीवत्यमृतबुद्धिरपि ॥३८२।। न च त्रिभुवनेऽपि पापमन्यत् प्राणातिपाततोऽस्ति । यत् सर्वेऽपि च जोवाः सुखलवतृष्णावन्त इह ॥३८३॥ माता ने कहा-"पुत्र ! परिणाम विशेष से पुण्य और पाप होता है । यह धर्म वचन है । सुनो इस सम्पूर्ण जगत् को मारकर जिसकी बुद्धि उसमें लिप्त नहीं होती है वह पाप में लिप्त नहीं होता है। जैसे-कमल-कोश पानी से लिप्त नहीं होती है ॥३८०॥ अथवा यद्यपि पाप होता है, फिर भी शरीर की निरोगता के लिए इसे करो। बुद्धिमान व्यक्ति, विशेष कारण को मानकर पाप भी करे। ऐसा करने पर जैसे विष भी औषधि हो जाती है उसी प्रकार कार्य भी (सफल) हो जाता है" ॥३८१॥ मैंने कहा- "तुमने जो आज्ञा दी कि परिणाम विशेष से पुण्य और पाप होते हैं। तो अकार्य में प्रवत्त होने पर परिणाम कैसा ? दूसरी बात भी है, सुनो पाप कार्य करते हुए भी यह पुण्य है-ऐसा मानता हुआ उसके फल को नहीं प्राप्त करता है अमृतत्व की बुद्धि रखता हुआ भी हालाहल विष का पान करने वाला (कभी) जीवित नहीं रहता है। तीनों लोकों में भी प्राणिवध के समान कोई अन्य पाप नहीं है; क्योंकि सभी जीव सुख के लेशमात्र के लिए भी तृष्णायुक्त रहते है॥३५२-३८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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