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________________ पउत्यो भवो] २९७ एवं च ठिए समाणे कहं हिंसावई धम्मसुइ ति ? जं च आणत्तं 'जइ वि पावं हवइ, तहवि देहारोग्गनिमित्तं कीरउ इम' ति, एत्थ सुण दीहाउओ सुरूवो नीरोगो होइ अभयदाणेणं । जम्मंतरेवि जीवो सयलजणसलाहणिज्जो य ॥३८४॥ देहारोग्गनिमित्तं पि एयवयपालणं चिय खमं मे । पावाहिवढिएण य देहेण वि अंब किं कज्जं ॥३८५॥ अंबाए भणियं-पुत्त, अलं रिसिवयणवियारणाए, कीरउ इमं चेव मह वयणं ति जंपमाणी निवडिया मे चलणेसु । तओ मए चितियं-अहो दारुणं; एगत्तो गुरुवयणभंगो, अन्नत्तो य वयभंगो त्ति । ता कि एत्थ कायव्वं ? अहवा गुरुवयणभंगाओ वि वयभंगो चेव विवागदारुणो ति चितिऊण विन्नत्ता अंबा । जहा-अंब, जइ ते अहं पिओ, ता अलं इमिणा दोग्गइनिवायहेउणा समाइडेण । अहवा वावाएमि अत्ताणयं, करेउ अंबा मम मंससोणिएणं कुलदेवयच्चणं ति । तओ मए कड्ढियं एवं स्थिते सति कथं हिंसावतो धर्मश्रतिरिति ? यच्चाज्ञप्तं 'यद्यपि पापं भवति तथाऽपि देहारोग्यनिमित्तं क्रियतामिदम' इति । अत्र शृणु दीर्घायुः सुरूपो नीरोगो भवत्यभयदानेन । जन्मान्तरेऽपि जीवः सकलजनश्लाघनीयश्च ॥३८४॥ देहारोग्यनिमित्तमपि एतव्रतपालनमेव क्षमं मे । पापाभिवधितेन च देहेनापि अम्ब ! किं कार्यम् ॥३८॥ अम्बया भणितम्-पुत्र ! अलं ऋषिवचनविचारणया, क्रियतामिदमेव मम वचन मिति जल्पन्तो निपतिता मे चरणयोः । ततो मया चिन्तितम्-अहो ! दारुणम्, एकतो गुरुवचनभङ्गं अन्यतश्च व्रतभङ्ग इति । ततः किमत्र कर्तव्यम् ? अथवा गुरुवचनभङ्गादपि व्रतभङ्ग एव विपाक दारुण इति चिन्तयित्वा विज्ञप्ताऽम्बा । यथा अम्ब ! यदि तवाहं प्रियः, ततोऽलमनेन दुर्गतिनिपातहेतुना समादिष्टेन । अथवा व्यापादयाम्यात्मानम, करोत्वम्बा मम मांसशोणितेन कुलदेवतार्चनमिति । ततो मया कर्षितं मण्डलायम् । अत्रान्तरे 'हा हा मा साहसम्' इति समुद्धावित आस्था ऐसा स्थित होने पर धर्मशास्त्र कैसे हिंसा वाला हो सकता है ? और जो आज्ञा दी कि यद्यपि पाप होता है तथापि शरीर के स्वास्थ्य के लिए यह करो। इस विषय में सुनो __ अभयदान से दूसरे जन्म में भी जीव दीर्घायु, सुन्दर रूपवाला, नीरोग और समस्त लोगों के द्वारा प्रशंसनीय होता है । शरीर के आरोग्य के लिए इस व्रत को भी मैं पालने में समर्थ हूँ, किन्तु पाप बढ़ाकर देह से भी, हे माता ! क्या कार्य है ? अथवा पाप बढ़ाकर देह धारण करना भी व्यर्थ है" ॥३८४-३८५॥ माता ने कहा-"पुत्र !ऋषि के वचनों से युक्त होकर मत सोचो, मेरे इन वचनों का ही पालन करो" ऐसा कहती हुई वह मेरे चरणों में गिर गयी। तब मैंने विचार किया-"ओह ! कठिन कार्य है, एक ओर माता के वचन भंग होते हैं और दूसरी ओर व्रतभंग होता है । अतः यहाँ क्या करना चाहिए ?" अथवा माता के वचनों को न मानने से भी अधिक व्रत का भंग करना भयंकर है --ऐसा कहकर माता से निवेदन किया"माता ! यदि मैं तुम्हारा प्रिय हूँ तो दुर्गति में गिराने का कारण यह आदेश मत दो अथवा अपने आपको मारता हूँ, माता मेरे रक्त, मांस से कुलदेवी की अर्चना करें।" तब मैंने तलवार खींची। इसी बीच 'हाय ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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