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[समराहचकहा
मंडलग्गं । एत्थंतरम्मि 'हा हा मा साहसं' ति समुद्धाइओ अत्थाइयामंडवम्मि कलयलो। ससज्झा विय उठ्ठिया अंबा, धरिओ तीए दाहिणभुयावंडे, भणिओ य। पुत्त, अहो ते माइवच्छलत्तणं; कि विवन्ने तुमम्मि अहं जीवामि? ता पयारंतरकओ माइवहो व तए एसो ववसिओ त्ति एवं निरूवेहि। एत्थंतरम्मि कइयं कुक्कूडेणं। सओ अंबाए सहो, भणियं च तीए-प्रत्त, सण्ड अप्पाणं एस कुक्कुडो । अस्थि य इमो कप्पो, जं ई इसे पत्थुयम्मि जस्स चेव सद्दो सुणीयइ, तस्स तप्पडिबिबस्स वा वावायणेण समीहियसंपायणं ति । ता चिट्ठतु अन्ने जीवा, एयं चेव कुक्कुडं वावाएहि त्ति । मए भणियं-अंब, न खलु अहं अंबाएसेणावि अत्ताणयं मोत्तण अन्नं वानाएमि । अंबाए भणियं-पुत्त जइ एवं, ता कि एइणा; पिट्ठमयकुक्कुडवहेणावि ताव संपाडेहि मे वयणं ति जंपमाणी अवहरिऊण मंडलग्गं पुणो वि निवडिया मे चलणेसु । एत्तरम्मि तन्नेहभोहियमणेण पणट्ठनाणावलोएण भणियं मए पावकम्मेण । अब, एवं जं तुम आणावेसि त्ति । अवि य ।
बहुयं पि विन्नाणं नाइसहं होइ निययकज्जम्मि ।
सुट्ठ वि दूरालोयं ण पेच्छए अप्पयं अच्छि ॥३८६॥ निकामण्डपे कलकलः । ससाध्वसेव चोत्थिताऽम्बा, धतस्तया दक्षिणभजादण्डे, भणितश्च-पुत्र ! अहो ! तव मातृवत्सलत्वम् ; किं विपन्ने त्वयि अहं जीवा मि ? ततः प्रकारान्तरकृतो मातृवध एव त्वयैष व्यवसित इत्येवं निरूपय । अत्रान्तरे कजितं कुटेन । श्र तोऽम्बया । शब्दः भणितं च तयापुत्र ! सूचयत्यात्मानमेष कुर्कुटः । अस्ति चायं कल्पः, यदीदृशे प्रस्तुते यस्यैव शब्दः श्रूयते तस्य तत्प्रतिबिम्बस्य वा व्यापादनेन समीहितसम्पादनमिति। ततस्तिष्ठन्त्वन्ये जीवाः, एतमेव कुर्कटं व्यापादयेति । मया भणितम्-न खल्वहमम्बादेशेनापि आत्मानं मक्त्वाऽन्यं व्यापादयामि । अम्बया भणितम..-पत्र ! यद्येवं ततः किमेतेन, पिष्टमयकर्कटवधेनापि तावत्सम्पादय मम वचनमिति जल्पन्ती अपहृत्य मण्डलाग्रं पुनरपि निपतिता मम चरणयोः । अत्रान्तरे तत्स्नेहमोहितमनसा वलोकेन भणितं मया पापकर्मणा-अम्ब ! एवं यत त्वमाज्ञापयसीति । अपि च
बहुकमपि विज्ञानं नातिसहं [नातिसमर्थं] भवति निजकार्ये ।
सुष्ठ्वपि दूरालोकं न पश्यत्यात्मानमक्षि ॥३८६॥ हाय ! भयंकर कार्य मत करो', इस प्रकार सभामण्डप में कोलाहल हो गया। घबड़ाहट से माता उठ गयीं और उसने अपनी दाहिनी भुजा में लेकर मुझसे कहा-"पुत्र ! ओह ! तुम्हारा मातृ-प्रेम, क्या तुम्हारे मरने पर मैं जीवित रहूँगी ? अतः(अपना वध करने पर) प्रकारान्तर से तुम्हारे द्वारा यह मातृवध रूपी कार्य ही निश्चित हुआ। इस प्रकार विचार करो।" इसी बीच मुर्गे ने आवाज दी। माता ने शब्द सुना । उसने कहा--"पुत्र ! यह मुर्गा अपने आपकी सूचना दे रहा है । यह नियम है कि ऐसी स्थिति आने पर जिसका शब्द सुनाई दे उसको अथवा उसके प्रतिरूप को मारने पर इष्ट कार्य की सिद्धि होती है। अतः अन्य जीव विद्यमान रहें, इसी मुर्गे को मार दो।" मैंने कहा--"मैं माता के आदेश से भी अपने को छोड़कर दूसरे को नहीं मारूंगा।" माता ने कहा - "पुत्र ! यदि ऐसा है तो इससे क्या ? आटे के चूर्ण के मुर्गे का वध करके मेरे वचनों को पूरा करो"-ऐसा वचन कहकर (उसने) मेरे हाथ से तलवार छीन ली और पैरों में गिर पड़ी। इस बीच उसके स्नेह से मोहित मन वाला, नष्ट ज्ञान-दर्शन वाला पापी मैंने कहा- "माता ! जो आप आज्ञा दें वही होगा। कहा भी है---
बहुत सारा ज्ञान होने पर भी वह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है। दूर के पदार्थ को भलीभौति देखने वाली भी आँख अपने आपको नहीं देखपाती है ।।३८६॥
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