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________________ चउत्यो भवो] २८९ एत्थंतरम्मि दिन्ना समाणत्ती लेप्पयाराणं । जहा निव्वत्तेह अकालहीणं पिट्ठमयं कुक्कुडं ति । निव्वत्तिओ य तेहि, उवणोओ मे समीवं । तओ सा अंबा तं च कुक्कुडं ममं च घेतूण गया देवयापायमूलं । ठाविओ से अगओ। भणिओ अहं तीए -पुत्त, कड्ढेहि मंडलग्गं । तओ मए ईसि विहसमाणेण कड्ढियं । अंबाए य भणिय-भयवइ कुलदेवए, एस सव्वजीवाण वावाय गबारए पुत्तदिट्ठदुस्सुमिणपडिघायणत्थमुवणीओ ते कुक्कुडो। वावाएइ य इमं एसो। ता एयस्स सरीरे कुसलं करिज्जासि त्ति भणिऊण सन्निओ अहं जहा 'वावाएहि एवं' ति । तओ मए घाइओ कुक्कुडो। कयं देवयच्चणं । भणिओ अंबाए सिद्ध कम्मो नाम सूक्यारो-इमं मंससेसं लहुं रंधेहि, जेण मे पुत्तो अहं च देवयासेसं पासामो त्ति । मए भणियं-अंब, अलं मंसभक्खणेण । सुण सुट्ठ वि गुणप्पसिद्धा तवनियमा दाणझाणविणिओगा। भंतोसहा य विहला नरस्स मंसासिणो होति ॥३८७॥ खइयं वरं विसं पि हु खणेण मारेइ एक्कसिं चेव । मंसं पुणो वि खइयं भवमरणपरंपरं णेइ ॥३८॥ ___ अत्रान्तरे दत्ता समाज्ञप्तिर्लेप्यकाराणाम् निर्वर्तयाकालहीनं पिष्टमयं कुर्कुटम् । निर्वतितश्च तैः, उपनीतश्च मम समोपम् । ततः साऽम्बा तं च कर्कटं मां च गृहीत्वा गता देवतापादमूलम् । स्थापितस्तस्याग्रतः । भणितश्चाहं तया-पुत्र ! कर्षय मण्डलायम् । ततो मयेषद् विहसता कषितम्। अम्बया च भणितम्-भगवति कुलदेवते ! एष सर्वजीवानां व्यापादनवारकः पुत्रदृष्टदुःस्वप्नप्रति. घातनार्थमुपनोतस्तव कुर्कुट: । व्यापादयति चेममेषः । तत एतस्य शरीरे कुशलं कुर्या इति भणित्वा संज्ञितोऽहं यथा 'व्यापादय एतम्' इति । ततो मया घातितः कुकुटः। कृतं देवतार्चनम् । भणितोऽम्बया सिद्धकर्मा नाम सूपकार:-इमं मांसशेषं लघु रन्धय, येन मे पुत्रोऽहं च देवताशेषं पश्याव इति । मया भणितम्-अम्ब ! अलं मांसशेषेण । शृणु सुष्ठ्वपि गुणप्रसिद्धाः तपोनियमा दानध्यानविनियोगाः । मन्त्रौषधानि विफलानि नरस्य मांसाशिनो भवन्ति ।।३८७।। खादितं वरं विषमपि खलु मारयति एकश एव। मांसं पुनरपि खादितं भवमरणपरम्परां नयति ॥३८॥ इसी बीच लेप्यकार्य करने वालों को आज्ञा दी गयी। अविलम्ब (उन्होंने) आटे के चूर्ण का मुर्गा बना दिया । बनाकर वे मेरे पास लाये । अनन्तर वह माता उस मुर्गे की और मुझे लेकर देवी के चरणों में गयी । उस देवी के आगे मुर्गा रख दिया। मुझसे उसने कहा-"पुत्र ! तलवार खींचो।" तब मैंने कुछ मुस्कराकर (तलवार) खींची। माता ने कहा-"भगवती कुलदेवी ! यह समस्त जीवों का वध करने से विरत पुत्र बुरे स्वप्न के निवारण के लिए आपके पास मुर्गा लाया है । यह इसको मारता है। अतः (आप) इसके शरीर का कुशल करें"-ऐसा कहकर मुझे इशारा किया कि इसे मारो । तब मैंने मुर्गा मार दिया। देवी की पूजा की। माता ने सिद्धकर्मा नामक रसोइये से कहा- "इस शेष मांस को शीघ्र सानो। जिससे मेरा पुत्र और मैं देवता को चढ़ाने से शेष बचे हुए को देखें (पायें)।" मैंने कहा-"माता ! शेष मांस से बस करो। सुनो- .. मांस भक्षण करने वाले मनुष्य के अच्छे गुण, प्रसिद्ध तप और नियम, दान, ध्यान, त्यागमन्त्र तथा औषधियाँ नष्ट हो जाते हैं । विष को भी खाकर एक बार मरना अच्छा है, किन्तु मांस को खाना, संसार में मरण की परम्परा की ओर ले जाना है ॥३८७-३८८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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