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________________ २९० [समराइचकहा मंसासिणो नरस्स हु पारतं आउयं च परिहाइ । परिवड्ढइ दोहग्गं दूसहदुक्खं च निरएसु ॥३८६॥ भेसज्ज पि य मंसं देई अणुमन्नई य जो जस्स। सो तस्स मग्गलग्गो वच्चइ नरयं न संदेहो ॥३६॥ दुग्गंधं बीभत्थं इंदियमलसंभवं असुइयं च । खइएण नरयपडणं विवज्जणिज्जं अओ मंसं ॥३९॥ एए य मंसासिणो दोसा । इमे पुण अमंसासिणो गुणा सव्वजलमज्जणाई सव्वपयाणाइ सम्वदिक्खाओ। एयाइ अमंसासित्तणस्स तणुयं पि न समाइं॥३९२॥ जे चोरसुमिणसउणा वहिपिसाया य भूयगहदोसा । एक्केण अमंसासित्तणेण ते तणसमी (मा)होंति ॥३९३॥ मांसाशिनो नरस्य खलु परत्रायुश्च परिहीयते । परिवर्धते दौर्भाग्यं दुःसहदुःखं च निरयेषु ॥३८६॥ भैषज्यमपि च मांसं ददाति अनुमन्यते च यो यस्य । स तस्य मागंलग्नो व्रजति नरकं न सन्देहः ॥३६०।। दुर्गन्धं वीभत्सं इन्द्रियमलसम्भवमशुचिकं च । खादितेन नरकपतनं विवर्जनोयमतो मांसम् ॥३६१॥ एते च मांसाशिनो दोषाः । इमे पुनरमांसाशिनो गुणाः सर्वजलमज्जनानि सर्वप्रदानानि सर्वदीक्षाः । एतानि अमांसाशित्वस्य तनुकमपि न समानि ॥३६२॥ ये चौरस्वप्नशकुना वह्निपिशाचाश्च भूतग्रहदोषाः । एकेनामांसाशित्वेन ते तृणसमा भवन्ति ॥३६३॥ मांस खानेवाले का परलोक और आयु ह्रास को प्राप्त हो जाते हैं, दुर्भाग्य बढ़ता है और नरकों में दुःसह दुःख होता है । जो मांस को दवाई के रूप में भी देता है अथवा उसकी अनुमोदना करता है वह उस मार्ग में लगा हुआ नरक जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है। दुर्गन्धित, बीभत्स, इन्द्रियों के मल से उत्पन्न, अपवित्र मांस को खाने से (प्राणी) नरक में गिरता है, अतः मांस को छोड़ देना चाहिए ॥३८६-३६१॥ ये मांस खाने वाले के दोष हैं और मांस न खाने वाले के ये गुण हैं समस्त जलों में स्नान करना, समस्त दान देना, सब प्रकार की दीक्षाएँ ग्रहण करना, ये क्रियाएँ मांस न खानेवाले की (क्रियाओं से) जरा भी समान नहीं हैं । जो चोर, स्वप्न, शकुन, अग्नि, पिशाच और भूतादि के ग्रहण के दोष हैं ।, वे एक मांस न खानेवाले के लिए तृण से समान होते हैं ॥३६२-३९३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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