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________________ भव] मंसस्स वज्जणगुणा दो चेव अलं नरस्स जियलोए । जं जियs निरुवसग्गं जं च मओ सोग्गइं लहइ ॥ ३६४ ॥ भणियं । पुत्त, अलं विधारणाए । कयं चेव मे वयणं तुमए त्ति । ता किं एइणा । न य इमं सच्चयं मंसं ति । परियप्पा खु एसा । तओ मए एवं पि पडिवन्नमणुचिट्ठियं च । एत्यंतर म्मि बद्ध साणुबंधमसुहकम्मं ति । बिइयदियहम्मि य कओ कुमारस्स रज्जाभिसेओ । पवत्तो अहं पव्वइउं । भणिओ य देवीए - अज्जउत्त, अज्जेकं पुत्तरज्जसुहमणुभवामो, सुए पव्वइसामोति । तओ मए चितियं - किमेयमवरोप्परविरुद्धं देवीए ववसियं । अहवा एयं पि अस्थि चेव । २६१ छडे जियंतं पिहु मयं पि अणुमरइ काइ भत्तारं । विसहरगयं व चरियं वंकविवंकं महिलियाणं ॥ ३६५॥ ताकि मम एहणा; जं एसा भणइ त्ति चितिऊण भणियं -सुंदरि, पहवसि तुमं मम जीवि मांसस्य वर्जनगुणौ द्वावेव अलं नरस्य जीवलोके । यज्जीवति निरुपसर्गं यच्च मृतः सुगतिं लभते ॥ ३९४॥ अम्बया भणितम् - पुत्र ! अलं विचारणया ? कृतमेव मम वचनं त्वयेति ; ततः किमेतेन । न चेदं सत्यं मांसमिति । परिकल्पना खल्वेषा । ततो मया एतदपि प्रतिपन्नमनुष्ठितं च । अत्रान्तरे बद्धं सानुबन्धमश भकर्मेति । द्वितीय दिवसे च कृतः कुमारस्य राज्याभिषेकः । प्रवृत्तोऽहं प्रव्रजितुम् । भणितश्च देव्या - आर्यपुत्र ! अद्यैकं (दिवस) पुत्र राज्यसुखमनुभवावः, प्रातः प्रव्रजिष्यावः । ततो मया चिन्तितम् - किमेतद् अपरापरविरुद्धं देव्या व्यवसितम् ? अथवा एतदपि अस्त्येव । त्यजति जीवन्तमपि अनुम्रियते काचिद् भर्त्तारम् । विषधरगतमिव चरितं वक्रविवक्रं महिलानाम् ॥ ३६५॥ ततः किं ममैतेन ? | यदेषा भणतीति चिन्तयित्वा भणितम् - सुन्दरि ! प्रभवसि त्वं मम मांस भक्षण न करने के संसार में दो ही गुण पर्याप्त हैं कि ( वह जीव) विघ्नबाधा से रहित होकर जीता है और मरकर सद्गति को प्राप्त करता है ॥ ३६४ ॥ माता ने कहा- "पुत्र ! विचार मत करो। तुमने मेरे वचनों का पालन कर ही लिया है। अतः इससे क्या ? और यह सत्य मांस नहीं है, यह कल्पना है । अनन्तर मैंने यह कार्य भी कर लिया । Jain Education International इसी बीच अभिप्राय युक्त होने के कारण ( मैंने ) अशुभकर्म बाँध लिये और दूसरे दिन कुमार का राज्याभिषेक किया । मैं दीक्षा लेने के लिए उद्यत हुआ। महारानी ने कहा- "आर्यपुत्र ! आज एक दिन हम लोग पुत्र के राज्य के सुख का अनुभव करें, प्रातःकाल दीक्षित हो जायेंगे ।" तब मैंने सोचा - यह महारानी ने परस्पर विरोधी क्या निश्चय किया ?" अथवा यह भी हो । (महिला) जीते हुए भी पति को छोड़ देती है और मरे हुए का अनुगमन करती है । ( इस प्रकार ) महिलाओं का चरित्र सांप की चाल के समान टेढ़ा-मेढ़ा होता है ॥ ३६५॥ अतः इससे क्या ? जो यह कहे, ऐसा विचार कर कहा - "हे सुन्दरी ! तुम मेरे प्राणों से भी अधिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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