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पळाची भवोj
२८५ मए भणियं-अंब, जं तुमं आणवेसि । अंबाए भणियं-निवडणनिमित्तं च निवाइऊण वेयविहिणा जलथलखहयरे जीवे करेहि कुलदेवयच्चणेणं संतिकम्मं ति। राओ मए ठइया कण्णा, भणियं चअंब, कीइसं जीवघाएणं संतिकम्मं ति ? अहिंसालक्खणो खु धम्मो । सुण
मणमेत्तेण वि इहइं परस्त एक्कं पि मरणभीरुस्स। मरणं भयाण कयं बहभयारणब्भवं होइ॥३७६॥ जो इह परस्स दुक्खं करेइ सो अप्पणो विसेसेणं ।
न पमायकयं कम्मं जं विहलं होइ जीवाणं ॥३७७॥ जं पि आइट्ठ 'करेहि संतिकम्मं ति।
तं सुणसु संतिकम्म नरस्त सम्वत्थसाहणसमत्थं । जं पयणुयं पि निच्चं परस्स पावं न बितेइ ॥३७८।। इहलोए परलोए य संतियम्म अणुत्तरं तस्स।
जह पेच्छइ अप्पाणं तह जो सव्वे सया जीवे ॥३७॥ यत्त्वमाज्ञापयसि । अम्बया भणितम्-निपतन[निवारण]निमित्तं च निपात्य वेदविधिना जलस्थलखचरान् जीवान् कुरु कुलदेवताऽर्चनेन शान्ति कर्मेति । ततो मया स्थगितौ कौं,भणितं च-अम्ब ! कीदृशं जीवघातेन शान्तिकर्मेति । अहिंसालक्षणः खलु धर्मः । शृणु
मनोमात्रेणापि इह परस्य एकमपि मरणभीरोः। मरणं भूतानां कृतं बहुभवमरणोद्भवं भवति ॥३७६॥ य इह परस्य दुःखं करोति स आत्मनो विशेषेण ।।
न प्रमादकृतं कर्म यद विफलं भवति जीवानाम् ।।३७७॥ यदपि आदिष्टं 'कुरु शान्तिकर्म' इति ।
तत शृणु शान्तिकर्म नरस्य सर्वार्थसाधनसमर्थम् । यत् प्रतनुकमपि नित्यं परस्य पापं न चिन्तयति ॥३७८।। इहलोके परलोके च शान्तिकर्मानुत्तरं तस्य ।
यथा पश्यत्यात्मानं तथा यः सर्वान् सदा जीवान् ॥३७६।। वेश धारण करलो।" मैंने कहा--"माता, जो आज्ञा दो।" माता ने कहा- "(इसके अतिरिक्त अशुभ) निवारण के लिए वैदिक विधि से जलचर, थलचर और नभचर जीवों को मारकर देवता की अर्चना कर शान्ति कर्म करो। तब मैंने दोनों कान बन्द कर कहा-“माता ! जीवों को मारने से शान्ति कर्म कैसा ? धर्म का लक्षण अहिंसा है । सुनो
___ इस संसार में मरने से डरने वाले किसी भी दूसरे प्राणी को मन से भी मारना बहुत से भवों में मरण का जनक होता है । जो इस संसार में दूसरे को दुःख पहुंचाता है वह अपने को विशेष रूप से दुःखी करता है । प्रमाद के द्वारा किया हुआ कार्य, जो सफल नहीं होता है, जीवों को नहीं करना चाहिए ॥३७६-३७७॥
जो आदेश दिया कि 'शान्ति कर्म करो'
सो सुनो-जो (मनुष्य) नित्य दूसरे का जरा भी पाप नहीं विचारता है, उसी मनुष्य का शान्ति कर्म समस्त प्रयोजनों का साधन करने में समर्थ है । इस लोक और परलोक में उसी का सर्वोत्तम शान्ति कर्म है जो सदा सभी जीवों को अपने समान मानता है ॥३७८-३७६।।
१. संतिगम्म-क।
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