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________________ २८४ [समराइज्यकहा इमीए पडिकलमासेविउं, जओ दुप्पडियाराणि अम्मापिईणि हवंति । विरतं च मे चित्तं भवपवंचाओ।न सक्कुणोमि इह चिट्ठिउं। ता उवाएण विन्नवेमि, जेण निस्संसय चेव एसा अणुजाणइ त्ति । एसो य एत्थुवाओ होउ । तं चेव सुमिणयं तहा साहेमि, जहा तस्स पडिघायणनिमित्तं वेसमेत्तं पडुच्च अणुजाणिहिइ इत्तरकालियं पव्वज्जमंबा । तओ अहं तहा पव्वइओ चेव होहामि त्ति चितिऊण सव्वत्थाइयासमक्खं विन्नत्ता अंबा मए । अंब, अज्ज मए --- रयणीए चरमजामम्मि दिट्ठो सुमिणओ'। तं सुणेउ अंबा । अंबाए भणियं-कहेहि पुत्त ! केरिसो ति। तओ मए भणियं-अहं खकिल गणहरकुमारस्स रज्जं दाऊण कयसिरतुंडमुंडणो सयलसंगचाई समणगो संवुत्तो, धवल. हरोवरिसंठिओ य पडिओ। तओ विउद्धो ससज्झसो ति । तओ अप्पसत्थसुविणयं सोऊण सुविणयत्थकोवियाए भयसंभंतथरहरेंतहिययाए वामपाएण महिमंडलं अक्कमिऊण थुथुक्कयसणाहं जंपियं अंबाए–प्रत्त, पडिहयं ते अमंगलं, चिरं जीव, निरुवसग्गं च महिं पालेहि। एयस्स वि य पडिघायणनिमित्त कीरउ इम, कुमारस्स रज्जं दाऊण गिहम्मि चेव इत्तिरियकालं समलिंगपडिवज्जणं ति। चास्याः प्रतिकलमासेवितुम्, यतो दुष्प्रतीकारी मातापितरौ भवतः । विरक्तं च मे चित्तं भवप्रपञ्चात । न शक्नोमीह स्थातुम् । तत उपायेन विज्ञपयामि, येन निःसंशयमेव एषाऽनूजानातीति । एष चात्रोपायो भवतु । तमेव स्वप्नं तथा कथयामि यथा तस्य प्रतिघातननिमित्तं वेषमात्रं प्रतीत्यानजास्यति इत्वरकालिकां प्रव्रज्यामम्बा। ततोऽहं तथा प्रवजित एव भविष्यामीति चिन्तयित्वा सर्वास्थानिकासमक्षं विज्ञप्ताऽम्बा मया-अम्ब ! अद्य मया रजन्याश्चरमयामे दष्ट: स्वप्नः । ते श्रणोत्वम्बा । अम्बया भणितम्-कथय पुत्र ! कीदृश इति । ततो मया भणितम्-अहं खलु किल गणधरकुमाराय राज्यं दत्त्वा कृतशिरस्तुण्डमुण्डनः सकलसङ्गत्यागी श्रमणः संवत्तः, धवलगहोपरि तश्च पतितः ततो विबुद्धः ससाध्वस इति । ततोऽप्रशस्तस्वप्नं श्रुत्वा स्वप्नार्थकोविदया भयसम्भ्रान्तकम्पमानहृदयया वामपादेन महीमण्डलमाक्रम्य थूथत्कृतसनाथं जल्पितमम्बया-पुत्र! प्रतिहतं तवामङ्गलम, चिरं जीव, निरुपसर्गं च महीं पालय। एतस्यापि च प्रतिघातननिमित्तं क्रीयतामिदम, कमाराय राज्यं दत्त्वा गहे एव इत्वरिककालं श्रमणलिङ्गप्रपदनमिति । मया भणितम्-अम्ब, जा सकता है। मेरा चित्त संसार रूपी प्रपंच से विरक्त हो गया है। यहाँ पर मैं नहीं ठहर सकता । अत: उपायपूर्वक निवेदन करता हूँ जिससे नि:सन्देह यह अनुमति दे दें। इस विषय में यही उपाय है कि उसी स्वान को उस प्रकार कहता हूँ जिस प्रकार उसके (अनिष्ट के) निवारण के लिए माता थोड़े समय के लिए वेषमात्र मानकर दीक्षा की स्वीकृति दे दें । तब मैं उस प्रकार दीक्षित हो जाऊँगा-ऐसा सोचकर सभी सभासदों के समक्ष मैंने माता से निवेदन किया-"माता ! आज मैंने रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न देखा । उसे माता सुनें।" माता ने कहा-"पुत्र ! कहो, कैसा स्वप्न देखा ?" तब मैंने कहा--"मैं कुमार गुणधर को राज्य देकर दाढ़ी, मूंछ मुड़ाकर, समस्त आसक्तियों का त्यागकर मुनि हो गया और धवलगृह (महल) के ऊपर स्थित हुआ गिर गया। तब घबड़ाहट में (मैं) उठ गया।" तब अशुभ स्वप्न सुनकर स्वप्नों के अर्थ को जानने वाले लोगों के कहने से भयभीत होने के कारण जिसका हृदय कांप गया है, ऐसी माता ने बायें पैर से पृथ्वी को आक्रान्तकर खकारते हुए कहा-"पुत्र ! तुम्हारा अमंगल दूर हो गया, चिरकाल तक जिओ और बिना विघ्नबाधा के पृथ्वी का पालन करो। अशुभ के निवारण के लिए यह करो-कुमार को राज्य देकर घर में ही थोड़े समय के लिए मुनि १. सुगिणओ-क, २. कीइसो त्ति-क-ख, ३. सुविणसत्थ ...- क, ४. ""हिययं-क। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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