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________________ उत्वों भवो २८३ निद्दा । रयणीचरिमजामम्मि दिट्ठो मए सुविणओ। किलाहं धवलहरोवरि सिंहासणोवविट्ठो पडिकलभासिणीए पाडिओ कहवि अंबाए जसोहराए, पलोट्टमाणो गओ सत्तमभूमियाए, अणुपलोट्टमाणा अंबा वि तह चेव त्ति; उठ्ठिऊण कहवि आरूढो मंदरगिरि। एत्थंतरम्मि विउद्घो। चितियं च मए । दारुणारम्भो विवागसुंदरो य एस सुमिणओ। ता न याणामो, कि भविस्सइ त्ति? अहवा पत्थयं मए परलोयसाहणं । जे होइ, त होउ ति।। तओ धम्मज्झाणमणुसरंतस्स चेव अइक्कंता रयणी । कयं पभाओचियं । ठिओ म्हि अत्थाइयामंडवे । आगया मे महल्लुज्जलपरियणपरिवारिया अंबा। अब्भुट्ठिओ सविणयं । पुच्छिओ अहं तीए सरीरकुसलं । निवेइयं मए ईस अवणउत्तिमंगेण। निसण्णा य सा धवलदुगुल्लोत्थयाए महापीढियाए । तओ मए चितियं । अहो लट्ठयं जायं, जं अंबा वि एत्थ आगय त्ति। निवेएमि इमीए निययाहिप्पाय, विन्नवेमि एवं पव्वज्जमंतरेणं। अहवा अच्चंतनेहालुया अंबा दुक्खं मे समीहियं संपाडइस्सइ ति । दिट्ठो य अकुसलसुमिणओ; तओ आसंकेमि अंबाओ एत्थ अंतरायं । न जुत्तं च निवत्तदेवोस्नेहभावतः समागता मे निद्रा। रजनीचरमयामे दृष्टो मया स्वप्नः । किलाह धवलगहोपरि सिंहासनोपविष्टः प्रतिकूलभाषिण्या पातितः कथमपि अम्बया यशोधरया, प्रलुठन् गतः सप्तमभूमिकायाम् । अनुप्रलुठन्ती अम्बाऽपि तथैवेति, उत्थाय कथमपि आरूढो मन्दरगिरिम् । अत्रान्तरे विबद्धः । चिन्तितं च मया। दारुणारम्भो विपाकसुन्दरश्चैष स्वप्नः। ततो न जानीमः किं भविष्यतोति ? अथवा प्रस्तुतं मया परलोकसाधनम्, यद् भवति तद् भवत्विति । ततो धर्मध्यानमनुस्मरत एवातिक्रान्ता रजनी । कृतं प्रभातोचितम् । स्थितोऽस्मि आस्थानिकामण्डपे । आगता मे महत्तरोज्ज्वलपरिजनपरिवारिताऽम्बा। अभ्युत्थितः सविनयम् । पृष्टश्चाहं तया शरीरकुशलम् । निवेदितं मया ईषदवनतोत्तमाङ्गेन । विषण्णा च सा धवलदुकलास्ततायां महापीठिकायाम् । ततो मया चिन्तितम्-अहो लष्टं जातं यदम्बाऽपि अत्रागतेति । निवेदयाम्यस्यै निजकाभिप्रायम्। विज्ञपयाम्येतं (स्वप्न) प्रव्रज्यामन्तरेण । अथवाऽत्यन्तस्नेहालुरम्बा दुखं मे समीहितं सम्पादयिष्यति । दृष्टश्चाकुशलस्वप्नः, तत आशङ्के अम्बातोऽत्रान्तरायम्। न युक्तं निवास भवन को गया। महारानी के प्रति स्नेहभाव न रहने के कारण नींद आ गयी। रात्रि के अन्तिम प्रहर में मैंने स्वप्न देखा। धवल गृह (महल) के ऊपर बैठे हुए मुझे विपरीत वचन बोलने वाली माता यशोधरा ने किसी प्रकार गिरा दिया, और मैं लुढ़कता हुआ सातवें नरक चला गया। पीछे से लुढकती हुई माता भी उसी नरक में आ गयी। उठकर किसी प्रकार सुमेरु पर्वत पर चढ़ा। इसी बीच (मेरी) नींद खुल गयी। मैंने सोचा-यह स्वप्न आरम्भ में भयंकर और अन्त में (परिणाम में) सुन्दर है । अत: नहीं जानता हूँ, क्या होगा ? अथवा मैं परलोक का साधन कर ही रहा हूं, जो होता है वह होवे । अनन्तर धर्म ध्यान करते हुए रात्रि बीत गयी। प्रात:कालिक क्रियाओं को किया । (मैं) सभामण्डप में बैठा हुआ था कि बहुत बड़े-बड़े समीपस्थ लोगों के साथ माता जी आयीं। (मैं) विध्यपूर्वक खड़ा हो गया। उन्होंने मेरे शरीर की कुशल पूछी। मैंने कुछ सिर झुकाकर निवेदन किया। वह सफेद रेशमी वस्त्र बिछे हुए महापीठ (बड़ा पीढ़ा) पर बैठीं । तब मैंने सोचा-'ओह!सुन्दर हुआ जो कि माता यहाँ पर आ गयीं। इनसे आना अभिप्राय निवेदन करता हूँ। इनसे दीक्षा को छोड़, स्वप्न के विषय में निवेदन करता हूँ अथवा अत्यन्त स्नेह रखने वाली माता दुःख से इष्ट कार्य को करने देगी। चूंकि मैंने अशुभ स्वप्न देखा है, अतः माता से यहाँ पर विघ्न की आशंका करता हूँ। इसके प्रतिकल कार्य करना ठीक नहीं है; क्योंकि माता-पिता का »तिकार कठिनाई से किया www.jainelibrary.org | For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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