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________________ पंचमो भवो वक्खायं जं भणियं धणधणसिरिमो य एत्थ पइभज्जा। जयविजया य सहोयर एत्तो एयं पवक्खामि ॥४३५॥ अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदो नाम नयरी। जीए समुद्दोद्देसा' विय पंकयगाहाउलाओ फरिहाओ, पइव्वयाजणमणो विय परपुरिसालंघणिज्जो पागारों धरणिहरकंदराई विय सोहबालय-समद्धासियाई दुवारतोरणाइं, सरयजलहरुक्केरा विय धवलाभोयसुंदरा पासाया। अविय। दियह पिय विहरखिनो जीए पओसम्मि कुलवहूसत्थो। दूमिज्जइ जालंतरपडिएहि मियंक किरणेहिं ॥४३६॥ गुरुयणविणउज्जुत्तो पणईयणवच्छलो सुहाभिगमो। धम्मत्थसाहणरई जीए जणो गुणनिही वसइ ॥४३७॥ व्याख्यातं यद् भणितं धन-धनश्रियौ चात्र पतिभार्ये । जय विजयौ च सहोदरी इत एतत् प्रवक्ष्यामि ॥४३॥ अस्ति इहैव जम्बद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे काकन्दी नाम नगरी । यस्याः समुद्रोद्देशा इव पङ्कजग्राहाकुलाः परिखाः, प्रतिव्रताजनमन इव परपुरुषालङ्घनीयः प्राकारः, धरणीधरकन्दराणीव सिंहबालकसमध्यासितानि द्वारतोरणानि, शरज्जलधरोत्करा इव धवलाभोगसुन्दराः प्रासादाः। अपि च दिवसप्रियविरहखिन्नो यस्यां प्रदोष कुलवधूसार्थः । दूयते जालान्तरपतितैमूंगाङ्गकिरणः ।।४३६।। गुरुजनविनयोधुक्तः प्रणयिजनवत्सलः सुखाभिगम्यः । धर्मार्थसाधनरतिर्यस्यां जनो गुणनिधिर्वसति ॥४३७॥ धन और धनश्री नामक पति और पत्नी के विषय में यहां पर जो कहा गया, उसकी व्याख्या हो चुकी। अब जय और विजय नामक दो भाइयों के विषय में कहूँगा ।।२३५॥ इसी जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में काकन्दी नगरी है, जिसकी समुद्र प्रदेश के समान कमल और मगरों से व्याप्त परिखा थी, जिसका प्राकार प्रतिव्रता स्त्री के मन के समान परपुरुष (शत्रुपुरुष) द्वारा अलंघनीय था, द्वारतोरण पर्वत की गफाओं के समान सिंहों के बच्चों से अधिष्ठित थे तथा प्रासाद (महल) शरत्कालीन मेघसमूह के समान सफेद आकार वाले होने के कारण सून्दर थे। और भीजिस नगरी में दिन में अपने प्रियों के विरह से खिन्न कुलवधुओं का समूह सायंकाल में पड़ती हुई चन्द्रमा दुःखी होता था; जिसमें बड़े लोगों की विनय में तत्पर, याचकों के प्रति स्नेह रखने वाले, सुख से समीप पहुँचने योग्य, धर्म और अर्थ के साधन में रत तथा गुणों के सागर मनुष्य निवास करते थे ॥२३६-२३७॥ १. समुद्ददेसा-क; 2. कयारो-क, ३. विडिएहि-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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