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________________ ३४२ एसा, पइदियहं पुच्छावए नरवई, न य किचि जंपइ त्ति आगओ ले वाहओ, समप्पिओ तेण पडिलेहो वाइओ राइणा । लिहियं च तत्थ । अस्थि मे धूया ध गसिरी कुलदूषणा । तओ राइणा चितियंअसंसयं कमिणमिमीए, अकज्जायरणसीला चेव एसा महाप वा । अहो से मूढया, अहो महापादकम्माणुट्ठाणं, अहो कूरहिय प्रया, अहो अणालोइयत्त । तहा वि 'अवज्झा इथिय' त्ति धाडिया णेण सरज्जाओ। गच्छमाणो य वासरंते तहाछुहाभिभूया पसुत्ता गामदेउलसभीवे । डक्का भुयंगमेणं । 'महापरिकिलेसेण विमुक्का जीविएणं । उववन्ना य एसा मरिऊण वालुयप्पभाए पुढवीए सत्तसागरोववट्ठि नारगो त्ति। याकिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रिय-भगवत्-श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां 'समराइच्चकहाए' चतुर्थो भवः समाप्तः । रक्षितैषा, प्रतिदिवसं प्रच्छयति नरपतिः, न च किंञ्चिज्जल्पताति । आगतो लेखवाहकः, समर्पितस्तेन प्रतिलेखः, वाचितो राज्ञा। लिखितं च तत्र। अस्ति मे दुहिता धनश्रीः कुलदूषणा च । ततो राज्ञा चिन्तितम् असंशयं कृतमिदमनया, अकार्याचःणशीला एवंषा महापाप।। अहो ! अस्या मूढता, अहो महापापकर्मानुष्ठानम्, अहो क्रूर हृदयता, अहो अनालोचितत्वम् । तथापि 'अवध्या स्त्रो इति धाटिता तेन स्वराज्याद् । गच्छन्तो च वासरान्ते तृष्णाक्षुदभिभूता प्रसुप्ता ग्रामदेवकुलसमीपे । दष्टा भुजङ्गमेन । महता परिक्लेशेन विमुक्ता जीवितेन। उपपन्ना चैषा मृत्वा बालुकाप्रभायां पृथिव्यां सप्तसागरोपमस्थिति रक इति । इति श्रीयाफिनीमहत्तरासूनु-परमगुणानुरागि-परमसत्यप्रिय श्रीहरिभद्राचार्यविरचितायां समरादित्यकथायां संस्कृतानुवादे चतुर्थभवग्रहणं समाप्तम् । लेखवाहक को भेजा । इसकी रक्षा की गयी । प्रतिदिन राजा ने पूछा किन्तु यह नहीं बोली । लेखवाहक आया, उसने प्रत्युत्तर समर्पित किया-राजा ने पढ़ा । उसमें लिखा था- 'धनश्री मेरी पुत्री है और कुल को दोष लगाने वाली है।' तब राजा ने सोचा -. 'इसमें कोई संशय नहीं कि यह कार्य इसी ने किया, अकार्य का आचरण करने वाली यह महापापिन है । इसकी मूढ़ता, पाप कर्म का अनुष्ठान, हृदय की क्रूरता, बिना विचारे कार्य करना (आदि सभी) आश्चर्यकारक हैं; तथापि 'स्त्री अवध्य है'-ऐसा सोचकर उसे अपने राज्य से निकाल दिया। दिन के अन्त समय में जाती हुई भूख-प्यास से अभिभूत होकर यह गाँव के देवमन्दिर के समीप सो गयी । (इसे सांप ने डम लिया । बहुत बड़े क्लेश से प्राण छोड़े। मरकर यह बालुकाप्रभा नामक पृथ्वी में सातसागर की स्थिति वाली नारकी इस प्रकार याकिनी महत्तरा के पुत्र, परमगुणों के अनुरागी, परमसत्यप्रिय भगवान श्री हरिभद्राचार्य द्वारा विरचित सनराइच्चकहा का चतुर्थ भवग्रहण समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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