SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तइको भयो ] ११ सिप्पनिम्मियं महापेढं काऊण पुत्तवहपरिणामजणियनरयाउया अभुंजिऊण तं दव्वं मया समाणी धूमप्पभाए नरयपुढवीए उववन्ना पन्नरससागरोवमट्टिई नारगो त्ति । तओ उव्वट्टा समाणी नाणातिरिएसु आहिडिय पुत्वभवम्भत्थलोभदोसओ एत्थ नालिएरिपायवत्ताए उववन्न ति । तुम पि य तओ चविऊण सागरदत्तसेटिगेहे सिरिमईए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो सि । दोण्हं पि तुम्हाणं संपयं इमा अवत्था । एस एत्थ व इयरो त्ति । तओ ममेयं सोऊण समुप्पन्नो संवेगो, विरत्तो भवचारगाओ मणो । अणुन्नविओ भयवंतसन्निहाणे तद्दव्ववइयरं नरवई । अणुन्नाओ य तेण तओ तं गेहाविय सयलदुहियसत्ताणं दाऊण पवन्ना मए विजयधम्मगणहरस्स समीवे पव्वज्ज ति। सिहिकुमारेण भणियं-भयवं ! एवमेयं, ईइसो चेव एस संसारो। धन्नो तुमं, जो एवमभिपव्वइओ त्ति । अह कइविहो पुण दाणाइभेयं पडुच्च पणीओ भयवया धम्मो । भयवया भणियंसुण । लोभेन तत्रैव स्वहस्तशिल्पनिर्मितं महापोठं कृत्वा पुत्रवधपरिणामजनितनरकायुष्का अभुक्त्वा तद् द्रव्यं मृता सती धूमप्रभायां नरकपथिव्यामुपपन्ना पञ्चदश सागरोपमस्थिति रक इति । तत उद्वृत्ता सती नानातिर्यक्ष आहिण्ड्य पूर्वभवाभ्यस्तलोभदोषतोऽत्र नालिकेरीपादपतया उपपन्ना इति । त्वमपि च ततश्च्युत्वा सागरदत्तश्रेष्ठिगेहे श्रीमत्याः कुक्षौ पुत्रतया उपपन्नोऽसि । द्वयोरपि युवयोः साम्प्रतमियमवस्था । एषोऽत्र व्यतिकर इति । ततो मम एतत् श्रुत्वा समुत्पन्नः संवेगः, विरक्तं भवचारकाद् मनः। अनुज्ञापितो भगवत्सन्निधाने तद्रव्यव्यतिकरं नरपतिः। अनुज्ञातश्च तेन, ततस्तद् ग्राहयित्वा सकलदुःखितसत्त्वेभ्यो दत्त्वा प्रपन्ना मया विजयधर्मगणवरस्य समापे प्रव्रज्या इति । शिखिकुमारेण भणितम्-भगवन् ! एवमेतत् , ईदृश एव एष संसारः, धन्यस्त्वम् , यः एवमभिप्रवजित इति । अत्र कतिविधः पुनर्दानादिभेदं प्रतीत्य प्रणोतो भगवता धर्मः। भगवता भणितम्-शृणु। मां उस धन के लोभ से वहीं आने हस्तशिल से निर्मित महापीठ बनाकर पुत्रवध के परिणामस्वरूप नरकायु बांधकर, उस द्रव्य का भोग न भोगकर, धूमप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हुई। पन्द्रह सागर की उस नरक की स्थिति थी। वहां से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भ्रमण कर, पूर्वभव के संस्कारवश लोभ के दोष से यहाँ पर नारियल के वृक्ष के रूप में उत्पन्न हुई । तुम भी वहाँ से च्युत होकर सागरदत्त सेठ के घर श्रीमती के गर्भ में आये । तुम दोनों की इस समय यह अवस्था है। यह घटना इस प्रकार है। तब यह सुनकर मैं भयभीत हो गया और भवभ्रमण से मन विरत हो गया। भगवान के समीप की उस धन की घटना को राजा के सामने निवेदन किया। उनसे अनुमति प्राप्त कर, पश्चात् उसे ग्रहण कर, समस्त दुःखी जीवों को देकर मैंने विजयधर्म गणधर के पास दीक्षा ले ली। शिखिकुमार ने कहा-"भगवन् ! ठीक है, संसार ऐसा ही है, आप धन्य हैं जो कि इस प्रकार दीक्षित हुए हैं।" (प्रश्न)-"भगवान् ने दानादिक के भेद से धर्म कितने प्रकार का बतलाया है ?" भगवान् ने कहा- "सुनो ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy