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________________ १२ [ समापन कहाँ धम्मो चउम्विहो दाण-सोल-तव-विविहभावणामइओ। सावय ! जिणेहि भणिओ तियसिंद-नरिंदनमिएहि ॥२४॥ दाणं च होइ तिविहं नाणाऽभय-धम्मुवग्गहकरं च । जं तत्थ नाणदाणं तमहं वोच्छं समासेणं ॥२४६॥ दिन्नेण जेण जीवो विन्नाया होइ बंध-मोक्खाणं । तं होइ नाणदाणं सिवसुहसंपत्तिवीयं तु ॥२४७॥ दिन्नेण तेण जीवो पुण्णं पावं च बहुविहमसेसं। सम्मं वियाणमाणो कुणइ पवित्ति निवित्ति च ॥२४८॥ पुण्णम्मि पवतंतो पावइ य लहुं नरामरसुहाई। नारयतिरियदुहाण य मुच्चइ पावाउ सुणियत्तो ॥२४॥ तिरियाण व मणुयाण व असुरसुराणं च होइ जं सुक्खं । तं सव्वपयत्तेणं पावइ नाणप्पयाणेणं ॥२५०॥ धर्मश्चतुर्विधो दान-शील-तो-विविधभावनामयः । श्रावक ! जिनर्भणितः त्रिदशेन्द्र-नरेन्द्रनतैः ॥२४५।। दानं च भवति त्रिविधं ज्ञानाऽभय-धर्मोपग्रहकरं च । यत् तत्र ज्ञानदानं तदहं वक्ष्ये समासेन ॥२४६॥ दत्तेन येन जीवो विज्ञाता भवति बन्ध-मोक्षयोः। तद् भवति ज्ञानदानं शिवसुखसम्पत्तिबीजं तु ॥२४७।। दत्तेन तेन जीवः पुण्यं पापं च बहुविधमशेषम् । सम्यग् विजानन् करोति प्रवृत्ति निवृत्ति च ॥२४८।। पुण्ये प्रवर्तमानः प्राप्नोति च लघु नराऽमरसुखानि । नारकतिर्यग्दु:खेभ्यश्च मुच्यते पापात् सुनिवृत्तः ॥२४६॥ तिरश्चां वा मनुजानां वा असुरसुराणां च भवति यत् सौख्यम् । तत् सर्वप्रयत्नेन प्राप्नोति ज्ञानप्रदानेन ॥२५०॥ हे श्रावक ! नरेन्द्र और देवेन्द्र के द्वारा नमस्कृत जिनेन्द्रों ने दान, शील, तप और अनेक प्रकार की भावना के रूप में दान चार प्रकार का बतलाया है । ज्ञान, अभय और धर्म में प्रोत्साहित करने वाला दान तीन प्रकार का होता है । इनमें से जो ज्ञानदान है उसे मैं संक्षेपतः कहूंगा । जिसे देने पर जीव बन्ध और मोक्ष का ज्ञाता हो जाता है उसे ज्ञान दान कहते हैं। वह मोक्षसुख रूपी सम्पत्ति का बीज है। उसे देने पर जीव अनेक प्रकार के सभी पुण्य और पाप को ठीक तरह से जानकर पुण्य में प्रवृत्ति और पाप से निवृत्ति करता है । पुण्य में प्रवृत्ति करने वाला शीघ्र ही मनुष्य और देवों के सुख को प्राप्त करता है। पाप से भली-भांति निवृत्त हुआ नरक और तिर्यच गति के दुःखों से छूटता है । तिर्यच, मनुष्य, सुर अथवा असुरों को जो सुख होता है, वह सब प्रयत्नपूर्वक ज्ञान के प्रदान करने से प्राप्त होता है ॥२४५-२५०।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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