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________________ [ समराइच्च कहा दोहियाणं विसय विसावहियचेयणाणं च सत्ताणं सुहं ति ? न किंचि सुहं, बहुं च दुक्खं । एत्थ मे सुण नायं १३२ जह नाम कोइ पुरिसो धणियं दालिदुक्ख संतत्तो । मोत्तूण नियं देस परदेसं गंतुमारद्धो ॥१७४॥ लंघेऊण य देसं' गामागर'नयरपट्टणसणाहं । दहि' नवरं कहंचि पंथाउ पढभट्टो ॥१७५॥ पत्तो य सालसरल - तमाल-तालालि-वउल-तिलय-निचुल-अकोल्ल-कदंब - बंजुल - पलास - सल्लई - तिणिस - निंब- कुडय - नग्गोह- खइर-सज्जऽज्जुणम्ब - जंबुयनियर गुविलं दरियमयणाहखरनहर सिहरावायदलियम त्तमायं गकुंभत्थल गलिय वहल रुहिरारत्तमुत्ता हल कुसुमपयरच्चियवित्थिण्णभूमिभागं वणकोलसरह-वसह-पसय-बग्घ-तरच्छ-ऽच्छभल्ल - जम्बुय-गय- गवय-सीह-गंडयाइ- रुटुटुट्टसावयभोसणं वणमहिसजू हंसमालोडियासे सपल्ललजलु च्छ्लं तुत्तत्थ जलयरमुक्कनायवहिरियदिसं महार्डीवं । तीए रागादिदोषगृहीतानां विषयविषापहृतचेतनानां च सत्त्वानां सुखम् इति ? न किंचित्सुखम्, बहु च दुःखम् । अत्र मम शृणु ज्ञातं दरिय यथा नाम कोऽपि पुरुषो भृशं दारिद्र्यदुःखसन्तप्तः । मुक्त्वा निजं देशं परदेश गन्तुमारब्धः ॥ १७४॥ लङ्घित्वा च देशं ग्रामाकरनगरपत्तनसनाथम् । स्तोकदिवसैर्नवरं कथंचित्पथः प्रभ्रष्टः ।। १७५।। प्राप्तश्च साल-सरल-तमाल-तालालि- बकुल- तिलक-निचुला-ऽङ्कोल्ल-कदम्ब - वञ्जुल - पलाशसल्लीक- तिनिश- निम्ब- कुटजन्यग्रोध- खदिर-सर्जार्जु' नाम्र जम्बूकनिकरगुपिलां दृप्तमृगनाथखरनखरशिखरापातदलित मत्तमातङ्गकुम्भस्थल गलित वहलरुधिरारक्तमुक्ताफल कुसुम प्रकराचितविस्तीभूमिभागां वनकोल- शरभ - वृषभ- पसय- व्याघ्र-तरच्छाच्छभल्ल - जम्बूक- गज- गवय-सिंह- गण्डकादिरुष्टदुष्टश्वापदभीषणां दृप्तवनमहिषयूथ समालोडिताऽशेषपल्वल जलोच्छल दुत्त्रस्तजलचरमुक्तनादरूपी विष से जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे संसार आये 'हुए प्राणियों को सुख कहाँ ? सुख कुछ भी नहीं है । दुःख बहुत है । इस विषय में मेरी जो जानकारी है उसे सुनो जैसे अत्यन्त निर्धनता रूपी दुःख से दुःखी किसी पुरुष ने अपने देश को छोड़कर परदेश में जाना प्रारम्भ किया । ग्राम, आकर, नगर और पत्तन से युक्त देश का उल्लंघन कर थोड़े ही दिनों में वह मार्गभ्रष्ट होकर किसी दूसरे मार्ग पर चलने लगा ।। १७४-१७५।। वह बहुत बड़े वन में पहुँचा जो कि साल, सरल, तमाल, ताड़वृक्षों के समूह, मौलसिरी, तिलक, बेंत, पिश्ता, कदम्ब, अशोक, ढाक, सल्लकी, तिनिश ( शीशम की जाति का एक वृक्ष), नीम, कमल, बरगद, खेर, सर्ज (एक विशेष प्रकार का साल), अर्जुन, आम और जामुनों के समूह से गहन था । गर्वीले सिंह के पैने नाखूनों के अग्रभाग से हाथियों के गण्डस्थल को विदीर्ण करने से झरते हुए अत्यधिक खून से रँगे मुक्ताफलरूपी फूलों के समूह से जहां का विस्तृत भूमिभाग व्याप्त था तथा जो जंगली सुअर, शरभ, साँड़, पसय ( मृग विशेष ), व्याघ्र, लकड़बग्घा, सफ़ेद भालू, शृगाल, हाथी, नीलगाय, सिंह तथा गैंडा आदि क्रुद्ध जंगली जानवरों से भीषण था और गर्वयुक्त जंगली भैसों के समूह के लोटने से समस्त छोटे तालाबों के जल के उछलने से डरे हुए जलचरों द्वारा उस विशाल वन में भ्रमण करते हुए उसने एक छोड़ी हुई आवाज से जहाँ पर दिशाएँ बहरी हो रही थीं, १. तं सोख, २. गामायर, ३. वहि दियहेहि कहूं - ख, ४. सल्लइ - च ५५ तस्थ - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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