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________________ बीमो भयो। य तण्हाछुहाभिभएण दरियवणदुटुसावयरवायग्णणुतथलोयणेणं दोहपहपरिस्समुप्पन्नसे यजलधोयगत्तेणं मूढदिसाचक्क विसमपहखलंतपयसंचारं परिभमतेण तेण दिट्ठो य पलयघणवंदसन्निहो नि?वियाणेयपहियजणवडिउच्छाहो गद्दन्भगज्जियरवावूरिय वियडरष्णुद्देसो मग्गओ तुरियतुरिय धावमाणो उद्धीकउइंडसुंडो वणहत्थि त्ति । तह य निसियकरवालवावडग्गहत्था विगरालवयणकाया भीमहट्टहाससंजुत्ता असियवसणा पुरओ महादुट्ठरक्खसि त्ति । तओ य ते दळूण मच्चुभयवेविरंगो अवलोइयसयलदिसामंडलो पुव्वदिसाए उदयगिरिसिहरसन्निहं निरुद्धसिद्धगंधव्वमिहुणगयण पयारमग्गं महंतं नग्गोहपायवं अवलोइऊण परिचितिउं पयत्तो। कहं ? जइ नाम कहवि एवं रवितुरयखुरग्गछिन्नघणपत्तं । नग्गोहमारहेज्जा छुट्टज्ज तओ गइंदस्स ॥१७६॥ इय चितिऊण भीओ कुससूईभिन्नपायतलमग्गो। वेगेण धाविऊणं वियडं वडपायवं पत्तो ॥१७७॥ वधिरितदिशं महाटवीम् । तस्यां च तृष्णा-क्षुदभिभूतेन दप्तवनदुष्टश्वापदरवाकर्णनोत्त्रस्तलोचनेन दीर्घपथपरिश्रमसमुत्पन्नस्वेदजलधौतगात्रेण मढदिक्चक्रं विषमपथस्खलत्पदसंचारं परिभ्रमता तेन दृष्टश्च प्रलयघनवृन्दसन्निभो निष्ठापितानेकपथिकजनवद्धितोत्साहो गर्दभगजितरवापूरितविकटा. रण्योद्देशो मार्गतः त्वरितत्वरितं धावन् ऊर्वीकृतोद्दण्डशुण्डो वनहस्तीति । तथा च निशितकरवालव्यापताग्रहस्ता विकरालवदनकाया भीमादृट्टहाससंयुक्ता असितवसना पुरतो महादुष्ट राक्षसी इति । ततश्च तां दष्टवा मत्युभयवेपामानाङ्गोऽवलोकितसकलदिग्मण्डलः पूर्वदिशि उदयगिरिशिखरसन्निभं निरुद्धसिद्धगान्धर्वमिथुनगगनप्रचारमार्ग महान्तं न्यग्रोधपादपमवलोक्य परिचिन्तयितु प्रवृत्तः । कथम् ? यदि नाम कथमप्येतं रविरगखुराग्रच्छिन्नधनपत्रम् । न्यग्रोधमारोहेयं मुच्येय ततो गजेन्द्रात् ॥१७६॥ इति चिन्तयित्वा भीतः कुशसूचिभिन्नपादतलमार्गः । वेगेन धावित्वा विकटं वटपादपं प्राप्तः ॥१७७॥ जंगली हाथी देखा। उस समय वह यात्री भूख तथा प्यास से सताया हआ था, गर्वीले जंगली दष्ट जानवरों के शब्दों के सुनने से भयभीत उसकी आँखें थीं, लम्बा रास्ता तय करने के कारण परिश्रम से उत्पन्न पसीने की बूंदों से वह अपने शरीर को धो रहा था, दिशा-भ्रमित था तथा ऊँचा-नीचा रास्ता होने के कारण उसके पैर लडखडा रहे थे। वह हाथी प्रलयकालीन मेघों के समूह के समान था, ठहरे हुए अनेक पथिक लोगों का वह उत्साहवर्द्धन कर रहा था। गधे की गर्जना के समान शब्द से उसने भयंकर जंगलों को परिपूर्ण कर दिया था और दण्ड की तरह सूड़ को ऊपर किये हुए वह मार्ग में जल्दी-जल्दी दौड़ रहा था । हाथ में तीक्ष्ण तलवार लिये हए भयंकर मुख और शरीर वाली, भयंकर अट्टहास करती हुई, काले वस्त्र पहिने हुए उसके सामने थी एक महादुष्ट राक्षसी । अनन्तर उसे देखकर मृत्यु के भय से जिसका शरीर काँप रहा था ऐसे उसने समस्त दिशाओं में देखा और पूर्वदिशा में उदयगिरि के शिखर के समान तथा सिद्धों और गन्धों के जोड़ों को आकाश मार्ग में अवरुद्ध करने वाले बड़े बरगद को देखकर सोचना प्रारम्भ किया सर्य के घोड़ों के खुरों के अग्रभाग से जिसके घने पत्ते तोड़ दिये गये हैं ऐसे इस बरगद के पेड़ पर यदि चढ़ जाऊँ तो हाथी से मुक्त हो जाऊँगा । ऐसा सोचकर वह भयभीत पुरुष जिसके पैरों के तल कुश के सुई जैसे सिरों से बिंध गये थे, वेग से दौड़कर भयंकर बरगद के पेड़ के समीप आया। ॥१७६-१७७t १. चक्क वि०-क-ख, २. वाऊरिय, ३. तुरियं-ख-ग+च, ४. गमण-ख, ५. णवरि-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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