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________________ पीओ भवो] १३१ असारयं चइऊण किलेसायासकारिणं संगं पवन्नो पव्वज्ज ति। सा उण तवस्सिणी तहा मरिऊण समुप्पन्ना तमप्पहाभिहागाए नरयपुढवीए । आउं च से इगवीसं सागराइं। एयं मे चरियं ति । एवं च सोऊण संजाओ रायनायराणं निव्वेओ। पुच्छियं च राइणा। भयवं, को उण तीए भवओ य परिणामो भविस्सइ ? भयवया भणियं-तीसे अणंतसंसारावसाणे मुत्ती, मम उण इहेव जम्मे त्ति। __ तओ अहमेवमायण्णिऊण' तस्स चेव भयवओ समीवे अणेयनायरजणपरिगओ पवन्नो पव्वज्जं । एयं मे विसेसकारणं ति। सीहकुमारेण भणियं-सोहणं ते निव्वेयकारणं । अह कइगइसमावन्नरूवो उण एस संसारो, किविसिट्ठाणि वा इह सारीरमाणसाणि सुहदुक्खाणि अणुहवंति पाणिणो, को वा एत्थ संसारचारगविमोयणसमत्थो भयवं ! धम्मो ति ? धम्मघोसे ग भणियं -वच्छ ! सुण, जं तए पुच्छियं एत्थ ताव चउगइसमावन्नरूवो संसारो। गईओ पुण इमाओ। तं जहा-नरयगई, तिरियगई, मणुयगई, देवगई । सुहदुर्वांचंताए पुण, कुओ संसारसमावन्नाणं जाइजरामरणपीडियाणं रागाइमिति । सा पुनः तपस्विनी तथा मृत्वा समुत्पन्ना तमःप्रभाभिधानायां नरकपृथिव्याम् । आयुश्च तस्या एकविंशतिः सागराणि । एतन्मे चरितमिति । एतच्च श्रुत्वा संजातो राजनागराणां निवेदः । पष्टं च राज्ञा-भगवन् ! कः पुनस्तस्याः भवतश्च परिणामो भविष्यति ? भगवता भणितम्-तस्या अनन्तसंसारावसाने मुक्तिः , मम पुनरिहैव जन्मनीति । ततोऽहमेतदाकर्ण्य तस्यैव भगवतः समीपे अनेकनागरजनपरिगतः प्रपन्नः प्रवज्याम् । एतन्मे विशेषकारणमिति । सिंहकूमारेण भणितम-शोभनं ते निर्वेदकारणम् । अथ कतिगतिसमापन्नरूपः पुनरेष संसारः, किविशिष्टानि वा इह शारीरमानसानि सुखदुःखानि अनुभवन्ति प्राणिनः, को वाऽत्र संसारचारकविमोचनसमर्थो भगवन् ! धर्म इति ? धर्मघोषण भणितम्-वत्स ! शृणु, यत्त्वया पृष्टम् अत्र तावच्चतुर्गतिसमापन्नरूपः संसारः । गतयः पुनरिमाः । तद्यथा-नरकगतिः, तिर्यग्गतिः, मनुजगतिः, देवगतिः । सुखदुःखचिन्तया पुनः, कुतः संसारसमापन्नानां जातिजरामरणपीडितानां वाली, आसक्ति त्यागकर दीक्षा धारण कर ली । वह बेवारी पुनः मरकर तमःप्रभा नामक नरक की पृथ्वी में उत्पन्न हई। उसकी आयु २१ सागर की है । यह मेरा चरित है । इसे सुनकर राज्य के नागरिकों को वैराग्य हो गया। राजाने पछा-'भगवन ! उसका और आपका क्या परिणाम होगा ?" भगवान ने कहा-"उसकी अनन्त संसार की समाप्ति होने पर मुक्ति होगी और मेरी इसी जन्म में होगी।" "तब मैंने यह सुनकर उन्हीं भगवान् के समीप अनेक नागरिक जनों से घिरे हुए होकर दीक्षा ले ली। यह मेरे वैराग्य का विशेष कारण है।" सिंहकुमार ने कहा - "आपका वैराग्य का कारण ठीक है। (कृपया यह बतलाइए कि) कितनी गतियों के बाद इस संसार का अन्त हो जाता है ? प्राणी किस प्रकार के शारीरिक और मानसिक दुःखों का अनुभव करते हैं ? भगवन् ! कौन-सा धर्म संसार-भ्रमण से छुटकारा दिलाने में समर्थ है ?" धर्मघोष ने कहा-"वत्स ! सुनो, जो तुमने पूछा ___ "चार गतियों में समाप्त हो जाने वाला संसार है । गतियां ये हैं-नरकगति, तिर्यग्गति, मनुष्यगति और देवगति । सुख-दुख के विषय में सोचें तो स्पष्ट है-जन्म-जरा-मरण से पीड़ित, रागादि दोषों से गृहीत, विषय १. मायण्णिय-ख For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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