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[समराइचकहा इमेण कुंडलजुयलं ता किमेत्थ कायव्वं । जायं मे लहत्तं, पणटो एसो वि। ता जाव सयणवग्गे वि मे लाघवं न उप्पज्जइ, ताव वावाएमि एवं ति। एसो य एत्थ उवाओ, सज्जघायणं से कम्मणजोगं पउंजामि । कओ तीए केवलाए चेव अणेयमरणावहदश्वसंजोएणं जोगो। संठवंती य तमे गदेसे उक्का भुयंगमेणं । साहियं च मे पुरोहिएणं रुद्ददेवेणं। गओ अहं ससंभंतो गिहं । दिट्ठा य कसिणमंडलविसवावियसरीरा जीवियमेत्तसेसा नंदयंती। तं च तहाविहं ठूण समुप्पन्ना मे चिता। धिरत्थु माइंदजालसरिसरस जीवलोयस्स। वाहजलभरियलोयणेणं च सगग्गयवखरं भणिया मएसुंदरि, किं ते वाहइ ? जाव न जंपइ त्ति । तओ विसण्णो अहं, पणट्ठा जीवियासा। तहावि 'गारुडिया एत्थ पमाणं, अचिता मंतसत्ति'त्ति सहाविया गारुडिया। विद्वा य तेहिं। विसण्णा य ते । भणिओय
हिं । सत्थवाहपुत्त, कालदट्टा खु एसा न गोयरा मंतस्स। ता न कुप्पियव्वं तुमए त्ति भणिऊण निग्गया गारुडिया। तओ अवकंदविलवणवावडस्स मे परियणरस विमुक्का जीविएणं, कयं से उद्धदेहियं । तओ अहं तन्निव्वेएणं चेव पवड्डमाणसंवेगो ‘धिरत्थु जीवलोयस्स' ति परिचितिऊण य मे लघुत्वम्, प्रनष्ट एषोऽपि । ततो यावत्स्वजनवर्गेपि मे लाघवं नोत्पद्यते तावद् व्यापादयाम्येतमिति। एष चात्रोपायः, सद्योघातनं तस्य कार्मणयोगं प्रयुञ्ज । कृतस्तया एव अनेकमरणावहद्रव्यसंयोगेन योगः । संस्थापयन्ती च तमेकदेशे दष्टा भुजङ्गमेन । कथितं च मे पुरोहितेन रुद्रदेवेन । गतोऽहं ससम्भ्रान्तो गृहम्, दृष्टा च कृष्णमण्डलविषव्याप्तशरीरा जीवितमात्रशेषा नन्दयन्ती। तां तथाविधां दृष्ट्वा समुत्पन्ना मे चिन्ता, धिगस्तु मायेन्द्र जालसदृशं जीवलोकम् । वाष्पजलभृतलोचनेन च सगद्गदाक्षरं भणिता मया-सुन्दरि ! किं ते बाधते ? यावन्न जल्पति इति । ततो विषण्णोऽहं, प्रनष्टा जीविताशा । तथाऽपि 'गारुडिका अत्र प्रमाणम्, अचिन्त्या मन्त्रशक्तिः' इति शब्दायिता गारुडिकाः । दृष्टा च तैः । विषण्णाश्च ते । भणितश्च तैः-सार्थवाहपुत्र ! कालदष्टा खलु एषा, न गोचरा मन्त्रस्य । ततो न कुपितव्यं त्वयेति भणित्वा निर्गता गारुडिकाः । तत आक्रन्दनविलपनव्याप्तस्य मे परिजनस्य विमुक्ता जीवितेन, कृतं तस्यौवंदैहिकम् । ततोऽहं तन्निर्वेदेनैव प्रवर्धमानसंवेगो, 'धिगस्तु जीवलोकस्य' इति परिचिन्त्य च असारं त्यक्त्वा क्लेशायासकारिणं सङ्गं प्रपन्नः प्रवज्यामें क्या करना चाहिए? मैं लघुता को प्राप्त हो गयी और यह भी चला गया है। अतः अपने लोगों के बीच जब तक मेरी लघुता प्रकट नहीं होती है तब तक इसको मार डालू । अब एक यह उपाय है - शीघ्र मारने वाले वशीकरण (अभिचार) का प्रयोग करूंगी।' उसने अकेले ही मारक द्रव्यों के संयोग से मिश्रण तैयार कर लिया। जब वह उसे एक स्थान पर रख रही थी तब साँप ने उसे काट खाया । मुझसे पुरोहित रुद्रदेव ने कहा । मैं घबड़ाया हुआ घर गया । काले मुंह और विष से व्याप्त शरीर वाली प्राणमात्र शेष वाली नन्दयन्ती को मैंने देखा । उसे उस प्रकार देखकर मुझे चिन्ता उत्पन्न हुई-मायामयी इन्द्रजाल के समान (इस) संसार को धिक्कारा। नेत्रों में जल भरकर गद्गद अक्षरों में मैंने कहा--"सुन्दरि ! तुम्हें कौन-सी बाधा है ?" वह नहीं बोली, तब मैं खिन्न हो गया । उसके जीने की आशा मिट गयी । तो भी सर्पविद्या के जानकार (गारुडिक) यहाँ प्रमाण हैं, मन्त्र की शक्ति अचिन्त्य है, ऐसा सोचकर सर्पविद्या के ज्ञाता बुलाये । उन्होंने देखा। वे खिन्न हो गये । उन्होंने कहा-"णिकपुत्र ! इसे काल ने उस लिया है अतः यह मन्त्र के गोचर नहीं है । अत: आप कुपित न हों"ऐसा कहकर सर्पविद्या के जानकर (गारुडिक) निकल गये । जब कि मेरे परिजन जोर-जोर से रो रहे थे, विलाप कर रहे थे, कि इसी बीच वह) निष्प्राण हो गयी। उसकी पारलौकिक क्रियाएं की। उस घटना से मुझे वैराग्य हुआ, मेरा धर्मानुराग बढ़ा, "संसार को धिक्कार". ऐसी संसार की असारता सोचकर दुःख और परिश्रम उत्पन्न करने १. लोयणेण।
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