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________________ बीओ भयो १२४ नंदयंति ति । पत्ताय जोव्वणं, विइण्णा य मज्झं । निव्वत्तियं पाणिग्गहणं । समुप्पन्नो य मे तं पह सिणेहो, तीए वि य तहेव । एवं च विसयसुहमणुहवंताणं गओ कोइ कालो। पुवकयकम्मदोसेण य से ममोवरि वंचणापरिणामो नावेइ, जेण समप्पियसव्वघरसारा वि मायाए ववहरइ। साहियं च मे परियणेणं, न उण पत्तियामि त्ति । अन्नया य साहियं मे तीए । जहा पण सव्वसारं कुडलजुयलं । तं पुण सयं चेव अवहरिऊण समाउलीभूया । भणिया य तओ मए-सुंदरि, थेवमेयं ति, किमेहहमेत्तेणं संरंभेण । अन्नं ते कुंडलजुयलं कारावेमि । कारावियं कुंडलजुयलं। अइक्कतेसु कइवयदिणेसु अभंगणवेलाए समप्पियं से नामंकियमुद्दारयणं, संगोवियं च तीए निययाभरणकरंडए। वत्ते य ण्हाणभोयणसमए काऊणमंगरायं परिगेण्हिऊण तंबोलं असंजायासंकेण चेव तओ करंडगाओ सइंचेव गहियं मए मुद्दारयणं । दिट्ठच पुश्वनट्ठ सव्वसारं कुंडलजुयलं। जाया य मे चिता 'किमयं पुणी लद्धति । एत्थंतरम्मि ससज्झसा विय आगया नंदयंती। दिट्ठच तीए मज्झ हत्थंमि मुहारयणं । विलिया सा । लक्खिओ से भावो । तओ अहं सिग्यमेव निग्गओ गेहाओ। चितियं च तीए-विट्ठ पाणिग्रहणम् । समुत्पन्नश्च मे तां प्रति स्नेहः, तस्या अपि च तथैव । एवं च विषयसुखमनुभवतोर्गतः कोऽपि कालः। पूर्वकृतकर्मदोषेण च तस्या ममोपरि वञ्चनापरिणामो ना पैति, येन समर्पितसर्वगृहसाराऽपि मायया व्यवहरति । कथितं च मम परिजनेन, न पुनः प्रत्येमोति । अन्यदा च कथितं मे तया, यथा-प्रनष्टं सर्वसारं कुण्डलयुगलम्, तत्पुनः स्वयमेवापहृत्य समाकुलीभूता। भणिता च ततो मया-सुन्दरि ! स्तोकमेतदिति, किमेतावन्मात्रेण संरम्भेण ? अन्यत्ते कुण्डलयुगलं कारयामि । कारितं च कुण्डलयुगलम् । अतिक्रान्तेषु कतिपयदिनेषु अभ्यङ्गनवेलायां समर्पितं तस्य नामाङ्कितं मुद्रारत्नम्, संगोपितं च तया निजकाभरणकरण्डके । वृत्ते च स्नानभोजनसमये कृत्वाऽङ्गराग परिगृह्य ताम्बूलमसंजाताशङ्केणैव ततः करण्डकात् स्वयमेव गृहीतं मया मुद्रारत्नम् । दृष्टं च पूर्वनष्टं सर्वसारं कुण्डलयुगलम् । जाता च मे चिन्ता । 'किमेतत्पुनर्लब्धम्' इति । अवान्तरे साध्वसा इवागता नन्दयन्ती। दृष्टं च तया मम हस्ते मुद्रारत्नम् । व्यलीका सा, लक्षितस्तस्या भावः । ततोऽहं शीघ्रमेव निर्गतो गेहात् । चिन्तितं च तया-दृष्ट मनेन कुण्डलयुगलम्, ततः विमत्र कर्तव्यम् । जातं उसके प्रति स्नेह उत्पन्न हुआ और उसे भी मेरे प्रति प्रेम उत्पन्न हुआ। इस प्रकार विषयसुख का अनुभव करते हुए कुछ काल व्यतीत हो गया । पूर्वकृत कर्म के दोष के कारण उसका मेरे प्रति छलकपट का भाव दूर नहीं हुआ, जिससे घर का सभी धन समर्पित करने पर भी मेरे प्रति माया का व्यवहार करने लगी। मेरे स्वकीय इन्धुषों ने कहा फिर भी मैंने विश्वास नहीं किया। एक बार उसने मुझसे कह दिया कि सोने के कुण्डल का जोड़ा चोरी चला गया है और फिर उसे स्वयं ही अपहरण कर वह आकुल-व्याकुल हो उठी । तब मैंने उससे कहा-'यह बहुत थोड़ा है, इतने मात्र के लिए क्यों व्याकुल होती हो? तुम्हें दूसरा कुण्डल का जोड़ा बनवा दूंगा।" कुण्डलों का जोड़ा बनवा दिया गया। कुछ दिन बीत जाने पर उबटन करते समय नाम से अकित मुद्रारत्न उसे दिया। उसने अपने गहनों की सन्दूक में छिपा लिया । स्नान और भोजन का समय होने पर चूर्ण लगाकर, पान लेकर, आशंका न उत्पन्न होने के कारण उस सन्दूक में से मैंने मुद्रारत्न को स्वयं ही ग्रहण कर लिया और पहले खोये हुए बहुमूल्य कुण्डल का जोड़ा देखा । मझे चिन्ता उत्पन्न हुई कि यह पुनः कैसे प्राप्त हुआ। इसी बीच मानो घबड़ाती हुई नन्दयन्ती आयी । उसने मेरे हाथ में मुद्रारत्न देखा । वह लज्जित हुई । (झूठी है इस प्रकार) उसका भाव लक्षित हुआ। तब मैं शीघ्र ही घर से निकल गया। उसने सोचा--'इसने कुण्डल का जोड़ा देख लिया है अतः इस विषय . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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