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________________ [ समराइच्चकहा जीवलोयस्स, एवमवसाणं संसारचेद्वियं । तओ अहं तस्स मयकिच्चं काऊण तन्निवेएण चेव पडिवन्नो माणगगुरुसमी मणलिंगं । परिवालिऊण अहाउयं उवबन्नो हेट्टिमोवरिमगेवेज्जए किंचूणपणुवीससागरोवमाऊ देवो; इयरो वि दोणओ तहाविहरुद्दज्झाणोवगओ धूमप्पभाए पुढवीए दुबालससागरोवमाऊ नारगो ति । तओ अहं सुराज्यमणुभ्रंजिऊण चुओ समाणो इहेव जांबुद्दीवे दीवे एत्थ चैव विजए चंपावासे नयरे माणिभद्दरस सेट्टिस्स धारिणीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तताए उववन्नो, जाओ य उचियसमएणं । पइट्टावियं मे नामं पुष्णभद्दो त्ति । पढमं च किल मए घोसमुच्चारयंतेण 'अमर' त्ति संत्तं । अओ दुइयं पि मे नामं अमरगुत्तोति । सावयगिहुप्पत्तीए य आ बालभावाओ aa पवन्नो मए जिणदेसिओ धम्मो । एत्यंतरंमि य इयरो वि तओ नरगाओ उव्वट्टिऊण सयंभुरमणे समुद्दे महामच्छो भविय अच्चतपावदिट्ठी मओ समाणो तीए चेव धूमप्पभाए दुबालससागरोवमाऊ' चैव नारगो होऊण उब्वट्टो समाणो नाणातिरिएसु आहिंडिय तंमि चेव नयरे नंदावत्तरस सेट्ठिस्स सिरिनंदाए भारियाए कुच्छिसि धूयत्ताए उववन्नो जाया य उचियसमएणं । पइठा वियं च से नामं १२ एवमवसानं संसारचेष्टितम् । ततोऽहं तस्य मृतकृत्यं कृत्वा तन्निर्वेदेनैव प्रतिपन्नो मानभङ्गगुरुसमीपे श्रमणलिङ्गम् । परिपालय यथाऽऽयुरुपपन्नोऽधस्तनोपरितनग्रैवेयके किञ्चिदूनपञ्चविंशतिसागरोपमायुर्देवः इतरोऽपि द्रोणकस्तथाविधरौद्रध्यानोपगतो धूमप्रभायां पृथिव्यां द्वादशसागरोपमायुर्नारिक इति । ततोऽहं सुरायुरनुभुज्य च्युतः सन् इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे अत्रैव विजये चम्पावर्षे नगरे मणिभद्रस्य श्रेष्ठो धारिण्या भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोपपन्नः, जातश्चोचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं नाम पूर्णभद्र इति । प्रथमं च किल मया घोषमुच्चारयता 'अमर' इति संलपितम्, अतो द्वितीयमपि मे नाम अमरगुप्त इति । श्रावकगृहोत्पत्या च आबालभावादेव प्रपन्नो मया जिनदेशितो धर्मः । अत्रान्तरे च इतरोऽपि ततो नरकाद्वृत्त्य स्वयंभूरमणे समुद्रे महामत्स्यो भूत्वा अत्यन्तपापदृष्टिर्मृतः सन् तस्यामेव धूमप्रभायां द्वादशसागरोपमायुरेव नारको भूत्वा उद्वृत्तः सन् नानातिर्यक्ष आहिण्ड्य तस्मिन्नेव नगरे नन्दावर्तस्य श्रेष्ठिनः श्रीनन्दाया भार्यायाः कुक्षौ दुहितृतयोपपन्नः, जाता चोचितसमयेन । प्रतिष्ठापितं च तस्या नाम नन्दयन्तो इति । प्राप्ता च यौवनम् वितीर्णा च मह्यम् । मरणकार्य कर उसी विरागता के कारण मानभंग गुरु के समीप श्रमण दीक्षा ले ली। आयुकर्मानुसार आयु पूरी कर उपरितर तीसरे ग्रैवेयक के नीचे कुछ कम पच्चीस हजार सागर की आयुवाला देव हुआ। दूसरा, द्रोणक भी उस प्रकार रौद्रध्यान को प्राप्त हुआ । धूमप्रभा पृथ्वी में बारह सागर की आयुवाला नारकी हुआ । अनन्तर मैं देवायु भोगकर, च्युत होकर इसी जम्बूद्वीप के इसी देश की चम्पानगरी में मणिभद्र सेठ की धारिणी स्त्री के गर्भ में आया और उचित समय पर उत्पन्न हुआ। मेरा नाम 'पूर्णभद्र' रखा गया । प्रथम शब्द उच्चारण करते हुए मैंने 'अमर' शब्द का उच्चारण किया अतः मेरा दूसरा नाम 'अमरगुप्त' भी रखा गया । श्रावक के घर में उत्पन्न होने के कारण बाल्यावस्था से ही मैंने जिनेन्द्रदेव द्वारा प्रणीत धर्म पाया । इसी बीच दूसरा भी उस नरक से निकलकर स्वयंभूरमण समुद्र में महामत्स्य होकर अत्यन्त पाप दृष्टि वाला होने के कारण मरकर उसी धूमप्रभा में बारहसागर की आयुवाला नारकी हुआ। वहाँ से निकलकर अनेक तिर्यंच योनियों में भटकता हुआ उसी नगर में नन्दावर्तसेठ की श्रीनन्दा पत्नी के गर्भ में पुत्री के रूप में आया । उचित समय पर वह उत्पन्न हुई । उसका नाम 'नन्दयन्ती' रखा गया । वह यौवनावस्था को प्राप्त हुई और मुझे दी गयी । पाणिग्रहण संस्कार पूरा हुआ। मुझे १. दिट्ठो च २ सागरोबमाउ–च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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