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बीमो भवो]
१२० यम्म'वासणादोसेण जाओ से ममोवरि अहिगो वंचणापरिणामो। चितियं च तेणं- अज्जियं पभूयं बविणजायं, भागिओ य वीरदेवो एयस्स, ता केण उण उवाएण वंचियव्वो एसो, न य मुणइ जहद्वियं णे कोइ ववहारं । ता कि अवलंबामि ? अहवा एयम्मि परिपंथगे न मे अलियवयणं निव्वहइ । ता वावाएमि एयं । तओ 'जमहं भणिस्सामि, तं चेव अग्घिस्सइ' त्ति संपहारिऊण पारद्धो तेण समुवयारो। काराविओ महंतो पासाओ, उवरिभूमिभाए य तस्स अणिय मियखीलजालो निज्जहगो। चितियं च तेणं । वीरदेवं पासायपवेसनिमित्तं निमंतिऊण दसेमि से निज्जूहगं। तओ सो रम्मदंसणीययाए निज्जहगस्स सहसा आरोह इस्सइ । तओ य तन्निवडणेण निवडिओ समाणो न भविस्सइ त्ति । एवं च कए समाणे लोयवाओ वि परिहरिओ होइ । संपाइयं तेण जहासमोहियं । भुत्तुत्तरकालंमि य आरूढा दुवे वि अम्हे सपरिवारा पासायं । एत्थंतरंमि य पणट्ठा से मई । मम दंसणनिमित्तं केवलो चेवारूढो निज्जूहगं। जाव य नारोहामि अहयं, ताव निवडिओ। हाहारवं करेमाणो समोइण्णो अहयं जाव दिटो पंचत्तमुवगओ दोणगो ति । समुप्पन्नो मे निवेओ। चितियं मए। धिगत्यु
जातस्तस्य ममोपरि अधिको वञ्चनापरिणामः । चिन्तितं तेन-अजितं प्रभूतं द्रविणजातम् भागिकश्च वीरदेव एतस्य, तत: केन पुनरुपायेन वञ्चयितव्य एषः, न च जानाति यथास्थिमावयोः कोऽपि व्यवहारम् । ततः किमवलम्बे ? अथवा एतस्मिन् परिपन्थिनि न मेऽलीकवचनं नि व्यापादयाम्येतम्। ततो 'यदहं भणिष्यामि, तदेव अहिष्यति' इति सम्प्रधार्य प्रारब्धस्तेन समुपचारः । कारितो महान् प्रासादः, उपरि भूमिभागे च तस्य अनियमितकीलजालो नियंहकः । चिन्तितं च तेन-वीरदेवं प्रासाद प्रवेशनिमित्तं निमन्त्र्य दर्शयामि तस्य नियूं हकम् । ततः स रम्यदर्शनीयतया निर्य हकस्य सहसा आरोक्ष्यति । ततश्च तन्निपतनेन निपतितः सन् न भविष्यति (जीविष्यति) इति । एवं च कृते सति लोकवादोऽपि परिहृतो भवति । सम्पादितं च तेन यथासमोहितम्। भुक्तोत्तरकाले चारूढौ द्वावपि आवां सपरिवारो प्रासादम् । अत्रान्तरे च प्रनष्टा तस्य मतिः । मम दर्शननिमित्तं केवल एवारूढो नियूं हकम् । यावच्च नारोहाम्यहं तावन्निपतितः । हाहारवं कुर्वन् समवतीर्णोऽहं यावद्दष्टो पञ्चत्वमुपगतो द्रोणक इति । समुत्पन्नो मे निर्वेदः। चिन्तितं मया--धिगस्तु जीवलोकस्य,
उत्पन्न हुआ। उसने विचार किया, प्रभूत धन अर्जित कर लिया और इसका भागीदार वीरदेव भी है अतः किस उपाय से इसे धोखा दें। हम लोगों के सही व्यापार को कोई भी नहीं जानता है । अत: क्या करू? अथवा इस विरोधी के होने पर मेरे झूठ वचनों का निर्वाह नहीं होता है, अत: उसे मारता हूँ। जो मैं कहूँगा वही माना जायेगा' ऐसा निश्चयकर अपना प्रयत्न प्रारम्भ किया। उसने बहुत बड़ा महल बनवाया और उसकी ऊपरी मंजिल पर अनियमित कील समूह वाला छज्जा बनवाया । उसने सोचा-महल के बहाने वीरदेव को निमन्त्रित कर उसे छज्जा दिखाऊँगा। वह देखने में रमणीय होने के कारण इस पर यकायक चढ़ेगा। तब उसके गिरने से गिरा हुआ वह जीवित नहीं बचेगा । ऐसा करने पर लोक-निन्दा से भी छुटकारा मिलेगा । उसने इच्छित कार्य को पूरा कराया । भोजन करने के बाद हम दोनों सपरिवार महल पर चढ़े। इसी बीच उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी । मुझे देखने अकेले ही छज्जे पर चढ़ गया। जब तक मैं नहीं चढ़ पाया तब तक (वह) नीचे जा गिरा । हाहाकार करते हुए ज्योंही मैं नीचे उतरा तो मैंने देखा कि द्रोणक मर चुका है। मुझे विराग हो गया। मैंने विचार किया-संसार को धिक्कार है, संसार की चेष्टाओं की समाप्ति इस प्रकार होती है। तब मैं ने उसके १. पुत्रकयकम्म
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