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________________ उत्यो भयो ३०७ भासणं, तणमेतस्स वि अदत्तादणस्स अग्गहणं, मणवयणकायजोगेहिं अबंभचेरपरिवज्जणं, गोसुवण्णहिरण्णाइएसुं च अपरिग्गहो; तहा निसिभत्तवज्जणं, बायालीसेसणादोससुद्धपिंडपरिभोओ। एत्थंतरम्मि भणियं दंडवासिएणं -- भयवं, अलं एइणा; कहेहि गिहिधम्म । कहिओ से भयवया पंचाणुव्वयाइओ सावयधम्मो। भणियं च णेण-भयवं, करेमि अहमेयं धम्मं । नवरं पुव्वपुरिसक्कमागयं वेयविहिएण विहिणा न परिच्चएमि पसुवहं ति । भयवया भणियं-जइ न परिच्चयसि, तओ इमं कुक्कुडमिहुणयं जहा तहा पाविहिसि संसारसायरे अगत्थं ति । दंडवासिएण' भणियं-भयवं, कि पुण न पच्चित्तमिमेहिं, को वा पाविओ अणत्यो ? तओ भयवया जहा अम्हे जणणितणया आसि, जहा य पिट्ठमयकुक्कुडवहो कओ, जहा य सिहिसाणसप्पपसया मीणोहारा य अइयमेसा य। महिसयकुक्कुडपक्खो जाया संसारजलहिम्मि ॥४०८॥ जाई च णे पत्ताई तिव्वदुक्खाई', सव्वमेयं सुयाइसयनाणिणा साहियं ति। एयं च सोऊण परं भाषणम्, तृणमात्रस्यापि अदत्तादानस्याग्रहणम्, मनोवचनकाययोगेरब्रह्मचर्यपरिवर्जनम्, गोसुवर्णहिरण्यादिकेषु चापरिग्रहः, तथा निशाभक्तवर्जनम्, द्विचत्वारिंशदेषणादोषशुद्धपिण्डपरिभोगः । अत्रान्तरे भणितं दण्डपाशिकेन-भगवन् ! अलमेतेन, कथय गृहिधर्मम् । कथितस्तस्य भगवता पञ्चाणुव्रतादिकः श्रावक.धमः। भणितं च तेन-भगवन् ! करोम्यहमेतं धर्मम, नवरं पूर्वपुरुषक्रमागतं वेदविहितेन विधिना न परित्यज्यामि पशुवधमिति । भगवता भणितम्-यदि न परित्यजसि तत इदं कुकुटमिथुनं यथा तथा प्राप्स्यसि संसारसागरेऽनर्थमिति । दण्डपाशिकेन भणितम् -भगवन् ! किं पुनर्न परित्यक्तमाभ्याम् ? को वा प्राप्तोऽनर्थः ? तता भगवता यथाऽऽवां जननीतनयौ आस्व, यथा च पिष्टमयकुर्कुटवधः कृतः, यथा च शिखिश्वान-सर्पपसया मीनोहारौ च अजाजमेषाश्च। __ महिष-कुकुटपक्षिणश्च जाता संसारजलधौ।।४०६।। यानि चावयोः प्राप्तानि तीव्रदुःखानि सर्वमेतत् श्रुताशयज्ञानिना कथितमिति। एतच्च तरह शुद्ध यथार्थ वचन बोलना, बिना दिये हुए तृणमात्र भी वस्तु का न लेना; मन, वचन और काय से अब्रह्मचर्य का त्याग; गाय, सोना आदि परिग्रह न रखना, रात्रिभोजन का त्याग तथा बयालीस एषणा दोषों से शुद्ध आहार का ग्रहण करना।" इसी बीच दण्डपाशिक (सेनापति) ने कहा-'भगवन् ! इससे बस करो। गृहस्थ का धर्म कहो । भगवान् ने उससे पंच अणुव्रत आदि श्रावकों का धर्म कहा । उसने कहा-"भगवन् ! मैं इस धर्म को करूँगा लेकिन पूर्व पुरुषों की परम्परा से आयी हुई वेदप्रतिपादित विधि से पशुवध का त्याग नहीं करूंगा।" भगवान् ने कहा-"यदि नहीं छोड़ोगे तो इस मुर्गे के जोड़े के समान संसार-समुद्र में अनर्थ पाओगे।" दण्डपाशिक ने कहा"भगवन् ! इन दोनों ने क्या त्याग नहीं किया था ? कौन-सा अनर्थ पाया था ?" तब भगवान् ने-जैसे हम माता पुत्र थे, जिस प्रकार हमने आटे के चूर्ण के मुर्गे का वध किया था, जिस प्रकार मोर तथा कुत्ता, साप तथा कुष्टपसय, मछली तथा सूस, बकरी तथा बकरा, भैंसा तथा मुर्गा के रूप में संसार में उत्पन्न हुए और जो हमने तीव्र दुःख प्राप्त किये ॥४०८।। वे सब श्रुत के अभिप्राय को जानने वाले मुनि ने कहे । इसे सुनकर दण्डपाशिक बहुत भयभीत १. डण्डख, २. भयवया भणि यं-पुणाहि भद्द ! इम-तहा साहिउमारद्धो जहा-ख, ३. उहारः शिशुमारः, ४. सारीरदुक्खाई सब."-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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