SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 366
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० [समराइन्धकहां संवेगमावन्नो दंडवासिओ । भणियं च णेण-भयवं, अलं मे इय परिणाम दारुणेणं वेयविहिएणावि पसुवहेणं; देहि मे गिहिधम्मोचियाइं वयाई। तओ भयवया तित्थयरभासिएणं विहिणा से दिन्नो संसारजलहिबोहित्थभूओ पंचनमोक्कारो, तहा थूलयपाणाइवायविरमणाइयाइं च वयाई । गहियाई च णेग नियचरियसवणसमुप्पन्नजाइस्सरणेहिं परमसंवेगागएहि य अम्हेहिं । तओ परिओसविसेसओ संपत्तभवणगुरुधम्मबोहेहि निवियसाणुबंधासुहकम्मेहिं कजियं अम्हेहिं । सुयं च तं राइणा दूसहरंतरगएणं जयावलीए सह सुरयसोक्खमणुहवंतेणं ति। गहियमणेण पासत्थं धणुवरं, संधिओ तीरियासरो, 'देवि, पेच्छ मे सद्दवे हित्तणं' ति भणिऊण मुक्को, तओ णेण वावाइयाइं अम्हे । समुप्पन्नाणि तक्खणं चेव भुत्तमुत्ताए जयावलीए चेव कुच्छिसि । आविन्भूयजिणधम्मवोहिगब्भपहावेण समुप्पन्नो तोए दढं अभयदाणपरिणामो। दिन्नं सत्तेसु अभयदाणं। जायाइं कालक्कमेणं अहं दारओ जणणी मे दारिय त्ति। गम्भहिं च अम्हेहि जणणी अभयदाणपरा आसि; अओ पइट्ठाश्रु त्वा परं संवेगमापन्नो दण्डपाशिकः । भणितं च तेन-भगवन् ! अलं मे इति परिणामदारुणेन वेदविहितेनापि पशुवधेन, देहि मे गहिधर्मोचितानि व्रतानि । ततो भगवता तोर्थंकरभाषितेन विधिना दत्तः संसारजलधिबोहित्थभूतः पञ्चनमस्कारः, तथा स्थलप्राणातिपातविरमणादिकानि च व्रतानि । गहोतानि च तेन निजचरितश्रवणसमुत्पन्नजातिस्मरणाभ्यां परमसंवेगागताभ्यां चावाभ्याम् । ततः परितोषविशेषतः सम्प्राप्तभुवनगुरुधर्मबोधाभ्यां निष्ठापितसानुबन्धाशुभकर्मभ्याम् कृजितमावाभ्याम् । श्रु तं च तद् राज्ञा दृष्यगृहान्तरगतेन जयावल्या सह सुरतसौख्यमनुभवतेति । गृहीतमनेन पार्श्वस्थं धनुर्वरम्, सन्धितस्तिर्यक्शर:--'देवि ! पश्य मे शब्दवेधित्वम्' इति भणित्वा मुक्तः, ततस्तेन व्यापादितावावाम् । समुत्पन्नौ तत्क्षणमेव भुक्तमुक्ताया जयावल्या एव कुक्षौ। आविर्भूतजिनधर्मबोधिगर्भ. प्रभावेणसमुत्पन्नस्तस्या दृढमभयदानपरिणामः। दत्तं सत्त्वेष्वभयदानम् । जातौ कालक्रमेण अहं दारको जननी मे दारिकेति। गर्भस्थाभ्यां चावाभ्यां जननी अभयदानपराऽऽसीत्, अतः प्रतिष्ठिते हो गया। उसने कहा-"जिसका फल भयंकर है, ऐसा वैदिक विधि से किये गये पशुवध का मैं त्याग करता हूँ। मेरे लिए गृहस्थ धर्म के योग्य व्रतों को दीजिए।" तब भगवान ने तीर्थंकर द्वारा कथित विधिपूर्वक संसार रूपी समुद्र को तिरने के लिए जहाज के समान पंचनमस्कार मन्त्र दिया तथा स्थूल हिंसा से विरत होना आदि व्रत दिये । अपने चरित को सुनने से उत्पन्न जाति-स्मरण वाले हम लोगों ने भी बहुत अधिक भयभीत होकर उनसे श्राव के व्रत ग्रहण किये। तदनन्तर संसार से धर्म का बोध प्राप्त कर विशेष रूप से सन्तुष्ट (पूर्वजन्मों में) सोद्देश्य अशुभकर्मों की स्थिति वाले हम लोग कूजन करने लगे। उसे जयावली के साथ शामियाने में सम्भोग-सुख का अनुभव करते हुए राजा ने सुना । राजा ने पास में रखे हुए धनुष को लिया, टेढ़ा बाण चढ़ाया (और) "महारानी ! मेरी शब्दवेधिता को देखो"-ऐसा कहकर (उस बाण को) छोड़ दिया । अनन्तर उससे हम दोनों मारे गये। उसी समय भोगी हुई जयावली के गर्भ में हम दोनों आये । गर्भ के प्रभाव से जिसे जैनधर्म का बोध प्रकट हुआ है, ऐसी उस रानी के अत्यधिक अभयदान के भाव हुए। (उसने) प्राणियों को अभयदान दिया। कालक्रम से मैं लड़का और मेरी मां लड़की हुई । गर्भावस्था में मेरी माता अभयदान में तत्पर थी अतः हम दोनों के नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy