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________________ वियाई नामाई मज्झं अभयरुई इयरीए अभयमइ ति । वड्ढियाइं च अम्हे देहोवचएण कलाकलावण य। चितियं च राइणा -करेमि अभयमईए विवाहं अभयरुइणो य जुयरज्जाभिसेयं ति। एत्थंतरम्मि पयट्टो पारद्धि राया, निग्गओ विसालाओ, पत्तो उजाणंतरं। छिक्को कुसुमामोयसुरहिणा मारुएणं । अवलोइयं च णेण तमुज्जाणं । दिट्ठो य तत्थ तिलयपायवासन्ने झाणमुवगओ सुदत्तो नाम मुणिवरो । कुविओ राया, 'अवसउणो खु एसो पारद्धीए पयट्टस्स; ता एयस्स कयत्थणाए चैव माणेमि एवं' ति चितिऊण छुच्छुक्कारसारं मुयाविया सुणया। अयालमच्च विव सिग्यवेएण पत्ता मुणिवरसमीवं । सुहुयहुयासणो विव तवप्पहाए जलंतदेहो दिट्ठो तेहि मुणिवरो। तो तं समुज्जलंतं साणा दठूण निप्पहा जाया। ओसहिगंधामोडियपब्भट्ठविसा भुयंग व्व ॥४०६॥ तवकम्मपहावेणं काऊण पयाहिणं सुणयवंद्र । धरणिगयमत्थएहि पडियं पाए मुणिवरस्स ॥४१०॥ नामनी ममाभयरुचिरितराया अभयमतिरिति । वधितौ चावां देहोपचयेन कलाकलापेन च । चिन्तितं च राज्ञा-करोमि अभयमत्या विवाहम्, अभयरुचेश्च यौवराज्याभिषेकमिति । ___ अत्रान्तरे प्रवृत्तः पापधि (मगयां) राजा, निर्गतो विशालायाः, प्राप्त उद्यानान्तरम् । स्पष्टकुसुमामोदसुरभिना मारुतेन, अवलोकितं च तेन तदुद्यानम् । दृष्टश्च तत्र तिलकपादपासन्ने ध्यानमुपगतः सुदत्तो नाम मु निवरः । कुपितो राजा । अपशकु नः खल्वेष पापद्धयाँ प्रवृत्तस्य, तत एतस्य कदर्थनयैव मानयाम्येतमिति चिन्तयित्वा छु छुत्कारसारं मोचिताः शु नकाः। अकाल मृत्युरिव शोघ्रवेगेन प्राताः मुनिवरसमीपम् । सुहुतहुताशन इव तपःप्रभया ज्वलद्देहो दृष्टस्तै, निवरः । ततस्तं समुज्ज्वलन्तं श्वाना दृष्टटा निष्प्रभा जाताः । औषधिगन्धामोटितप्रभ्रष्टविषा भुजङ्गा इव ।।४०६।। तपःकर्मप्रभावेन कृत्वा प्रदक्षिणं शुनकवन्द्रम् । धरणीगतमस्तकैः पतितं पादयोर्मुनिवरस्य ॥४१०।। अभयरुचि और अभयमति रखे गये । हम लोगों का शरीर और कलाएं बढ़ीं। राजा ने सोचा-'अभयमति का विवाह करूँगा और अभयरुचि का युवराज पद पर अभिषेक करूंगा।' इसी बीच राजा शिकार को निकला । उज्जयिनी से निकलकर दूसरे उद्यान में आया । फूलों की सुगन्धि से सुगन्धित वायु का स्पर्श किया और उसने उस उद्यान को देखा । वहाँ तिलक वृक्ष के पास में ध्यान लगाये हुए सुदत्त नामक मुनिवर दिखाई पड़े । राजा कुपित हुआ। 'शिकार में प्रवृत्त मेरे लिए यह अपशकुन है अत: इसका अपमान करके ही मैं मानूंगा' ऐसा विचार कर छू-छू की आवाज कर कुत्ते छोड़ दिये । अकाल मौत के समान (वह) शीघ्र वेग से मुनिवर के समीप में आये । अच्छी तरह से जलायी गयी अग्नि के समान तप की प्रभा से देदीप्यमान शरीर वा ले (उन) मुनिवर को कुत्तों ने देखा। ___ अनन्तर देदीप्यमान उन्हें (मुनिवर को) देखकर कुत्ते निष्प्रभ हो गये, जिस प्रकार पीसी गयी औषधि की गन्ध से सर्प विष का त्याग कर देते हैं । तपस्या के प्रभाव से कुत्ते मुनि की प्रदक्षिणा कर धरती पर मस्तक रखकर स्नके चरणों में बैठ गये ॥४०६-४१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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