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बोबो भयो]
१२.
किं पुण वाहिजरारोगसोगनिच्य म्मि माणुस्से । मच्चुस्स सो पमाओ जं जियइ नरो निमेसं पि ॥२२७।। ता मा अधीरजणसेवियस्स अयसस्स देहि उ(अ)वयासं । न हु मच्चुदाढलीढं इंदो वि पहू नियत्तेउं ।।२२८॥ इय मयमारणमेत्तेण वच्छ ! मा नियकुलं कलंकेहि। गेण्हामि कहं चत्तं हंत ! सवायाए आहारं ॥२२६।। सोऊण इयं वयणं कोवाणलजलियरत्तनयणेण । 'जंपइ अज्जाऽवि कहं' पहओ सोसम्मि खग्गेणं ॥२३०।। परिचितियं च तेणं 'नमो जिणाणं' ति मुणियतत्तेणं । 'पुवकयकम्मदोसो एसो' त्ति विसुद्धभावेणं ॥२३१॥ सव्वो पव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निभित्तमेत्तं परो होइ ॥२३२॥ किं पुनर्व्याधिजरारोगशोकनित्योद्रुते मानुषे । मत्योः स प्रमादो यज्जावति नरो निमेषमपि।।२२७॥ ततो माऽधीरजनसेवितस्यायशसो देह अवकाशम् । न खलु मृत्युदाढालोढं इन्द्रोऽपि प्रभुनिवतयितुम् ॥२२८।। इति मतमारणमात्रेण वत्स ! मा निजकुलं कलङ्कय । गामि कथं त्यक्त हन्त ! स्ववाचा आहारम् ॥२२६।। श्र त्वेदं वचनं कोपानलज्वलितरक्तनयनेन । जल्पति अद्यापि कथं प्रहतः शीर्षे खङ्गन ।।२३०।। परिचिन्तितं च तेन 'नमो जिनेभ्यः' इति ज्ञाततत्त्वेन । पूर्वकृतकर्मदोष एष इति विशुद्धभावेन ॥२३१॥ सर्वः पूर्वकृतानां कर्मणां प्राप्नोति फलविपाकम् । अपराधेषु गुणेषु च निमित्तमात्रं परो भवति ॥२३२।।
फिर यदि व्याधि, जरा,रोग और शोक से नित्य पीड़ित मनुष्य क्षण भर भी जीता है तो यह मृत्यु का प्रमाद ही है। अतः अधीर मनुष्यों के द्वारा सेवित अयश को अवकाश न दो, मृत्यु की दाढ़ में गया हुआ इन्द्र जैसा समर्थ प्राणी भी छुटकारा नहीं पा सकता। अत: वत्स ! मात्र मरे हुए को मारकर अपने कल को कलंकित मत करो। जब मैंने अपनी वाणी से आहार का त्याग कर दिया तो बडे खेद की बात है. उसे मैं ग्रहण कैसे करूँ ?" इस वचन को सुनकर क्रोधरूपी अग्नि में जलते हुए नेत्रों वाले उसने 'आज भी
ता है'-कहकर तलवार से सिर पर प्रहार किया। जिसने तत्त्वों को जान लिया था ऐसे उस राजा ने 'यह मेरे पूर्वकृत कर्मों का ही दोष है' ऐसा विशुद्ध भावों से चिन्तवन कर 'जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार हो ऐसा कहा। सभी प्राणी पूर्वकृत कर्मों के फल के विपाक को प्राप्त करते हैं। अपराधों और गुणों में दूसरा कोई निमित्त मात्र ही होता है ॥२२७-२३२॥
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