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एवं च चितयंतो पुणो वि हंतुण पावकम्मेणं । fafarsओ महत्पा अकलुस चित्तो सकलुसेणं ॥ २३३॥ मरिऊण य उववन्नो सणकुमारम्भ सुरवरो जुइमं । अह पंचसागराऊ लीलारामे विमाणम्मि || २३४ ॥ इयरोविय काऊणं रज्जं मरिऊण रयणपुढवीए । saarat नेरइओ उक्कोसाऊ महाघोरा ॥ २३५।।
समराइच्चकहाए बोओ भवो समत्तो ।
एवं च चिन्तयन् पुनरपि हत्वा पापकर्मणा । विनिपातितो महात्माsकलुषचित्तः सकलुषेण ॥२३३॥ मृत्वा चोपपन्नः सनत्कुमारे सुरवरो द्युतिमान् । अथ पञ्चसागरायुर्लीलारामे विमाने ॥ २३४ ॥ इतरोऽपि च कृत्वा राज्यं मृत्वा रत्नपृथिव्याम् । उपपन्नो नैरयिक उत्कृष्टायुर्महाघोरः ।। २३५॥
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याकिनीमहत्तरासूनु- परमगुणानुरागि परम सत्यप्रिय-भगवत् - श्रीहरिभद्रसूरिवररचितायां समरादित्यकथायां द्वितीयो भवः समाप्तः ।
[ समराइच्चकहा
जब वह ऐसा सोच रहा था तब उस पापी के द्वारा पुनः मारा गया वह महात्मा निर्मल चित्त होकर मरा और सनत्कुमार नामक स्वर्ग में लीलाराम, विमान में पाँच सागरोपम आयु वाले कान्तिमान देव के रूप में उत्पन्न हुआ। दूसरा भी (आनन्द) राज्य करके मरने पर रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्कृष्ट आयु वाला महाघोर नारकी के रूप में उत्पन्न हुआ ।।२३३-३३५।।
॥ दूसरा भव समाप्त ॥
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