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________________ २०३ समो भयो रणसोलो य । ता कहं सो तओ नरयाओ आगच्छिऊण दिटुविवागो वि मंन निवारेइ। भयवया भणियं-सुण, जहा महावराहयारी, तिक्खनरवइसमाएसगहिओ, रोहिं चारयपुरिसेहि लोहसंकलानिबद्धदेहो, घोरंधयारचारयनिवासी, परतंतओ सुप्पियं पि सयणं ददु पि न लहए, किमंग पुणाणुसासिउं? एवमेव ते नारगा पमायावराहकारिणो तिव्वयरकम्मपरिणामगहिया चंडेहि निरयपालेहि वज्जसंकलानिबद्धदेहा तिव्वंधयारदुरुत्तरनरनिवासिणो कम्मपरतंता कहं निक्खमि लहंति, जेण देवाणुप्पियं अणुसासेंति ? भणियं च निरयाउए अझोणे' निक्खमिउं नो लहंति नरगाओ। कम्मेण पावयारी नेरइया ते निहन्नति ॥३०७॥ पिंगकेण भणियं-भयवं! जइ एवं, ता ममं चेव पिया सोपिंगो नाम, सो अच्चंतपरलोयभीरू, पाणवहाइविरओ, अकसायसीलो, अणेगजागयारी पच्छा य समणवयं घेत्तूण कंचि कालं परिवालिय मओ। सोय सुह दसणेण नियमेण देवेसु उववन्नो। अच्चंतवल्लहो य अहं तस्स आसि । णोयनिवारणशीलश्च। ततः कथं स ततो नरकाद् आगत्य दृष्टविपाकोऽपि मां न निवारयति । भगवता भणितम्-शृणु, यथा महापराधकारी, तीक्ष्णनरपतिसमादेशगृहीतः, रौद्रैश्चारकपुरुषैर्लोहश्रृंखलानिबद्धदेहः, घोरान्धकारचारकनिवासी, परतन्त्रकः सुप्रियमपि स्वजनं द्रष्टुमपि न लभते, किमङ्ग पुनरनुशासितुम् ? एवमेव ते नारकाः प्रमादापराधकारिणस्तीव्रतरकर्मपरिणामगृहीताश्च. ण्डैनिरयपालैर्वजशृङ्खलानिबद्धदेहास्तीवाऽन्धकारदुरुत्तरनरकवासिनः कर्मपरतन्त्राः कथं निष्क्रमितु लभन्ते, येन देवानुप्रियमनुशासयन्ति । भणितं च निरयायुषि अक्षीणे निष्क्रमितुं नो लभन्ते नरकात् । कर्मणा पापकारिणो नैरयिकास्ते निहन्यन्ते ॥३०७॥ पिङ्गकेन भणितम्-भगवन् ! यदि एवम् । ततो ममैव पिता सोमपिङ्गो नाम, सोऽत्यन्तपरलोकभीरुः; प्राणवधादिविरतः, अकषायशीलः, अनेकयागकारी, पश्चाच्च श्रमणव्रतं गहीत्वा कञ्चित् कालं परिपाल्य मतः । स च तव दर्शनेन नियमेन देवेषु उपपन्नः। अत्यन्तवल्लभश्चाहं करने योग्य नहीं था, उसके लिए मुझे मना करता था । तो फल भोग कर भी वह क्यों नरक से आकर मुझे नहीं रोकता है ?" भगवान् ने कहा - ''सुनो, जैसे बहुत बड़े अपराधी को राजा की कठोर आज्ञा से पकड़कर रुद्र रूपधारी सिपाही उसके शरीर को लोहे की सांकलों से बाँधकर भयानक अन्धकार वाले कारागार में डाल देते हैं। (वहाँ पर) परतन्त्र होकर अपने प्रिय स्वजनों को देख भी नहीं पाता है, उनको शिक्षा देने की तो बात ही क्या है ? इसी प्रकार वे नारकी जीव जो कि प्रमादवश अपराध कर अत्यधिक तीव्र परिणामों से भयंकर नरकपालों द्वारा ग्रहण किये जाकर वज की साँकल से बांध दिये जाते हैं तीव्र अन्धकार वाले उत्तर न देने योग्य नरक में रहते हैं । कर्म से परतन्त्र हुए वे (वहाँ से) कैसे निकल सकते हैं ताकि अपने प्रियजनों को शिक्षा दे सकें । कहा भी है नरक की आयु क्षीण हुए बिना नरक से नहीं निकल सकते हैं । कर्मवश पापकारी नारकी उसे मारते है ॥३०७॥ पिंगक ने कहा--"भगवन् ! यदि ऐसा है तो मेरा पिता जिनका नाम सोमपिंग था, परलोक से बहुत डरते थे। प्राणिवध आदि से विरत थे, कषायरहित थे, अनेक यज्ञ कराने वाले थे, बाद में श्रमण दीक्षा १, अपवीणे-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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