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________________ २०४ [समराइच्चकहा धम्मं च मे देसियव्वं ति भणियमासी । ता कहं सो अपरतंतो वि समाणो इहागच्छिऊण मं न पडिबोहेइ। भयवया भणियं--सुण, जहा नाम कोइ दरिद्दपुरिसो, होणजाइकुलरूवो ववसायं काऊण गहियकलाकलावो देसंतरमुवगंतूण तप्पसायओ कहिंचि पत्तरज्जो, कयविविहसुंदरीपरिग्गहो, महानरिंदपूइओ, संजायाणेगसुंदरावच्चो, महासोक्खसागरावगाढो न सुमरए लज्जावणिज्जस्स कुकलत्तपुत्तभंडगस्स, एवं चेव ते देवा मणुयत्तणमसारं मन्नमाणा धम्मववसायं काऊण गहियपरलोगकलाकलावा' सुरालयं पाविऊण पुव्वसुकयपसायओ देविाट्ट पाविऊण तियससुंदरोपरियरिया, महाणेगदेवगणपूइया, समप्पन्नाणेयरइनिबंधणा, अच्चंतरइसागरावगाढा न सुमरंति वि मणुयभावस्स, किमंग पुण आगच्छंति ? ता कहं समणुसासइंति ? भणियं च "संकंतदिव्वपेमा विसयपसत्ताऽसमत्तकत्तव्वा । अणहीणमणुयकज्जा नरभवमसुहं न एंति सुरा" ॥६०८॥ तस्यासम् । धर्मश्च मम देष्टव्य इति भणितमासीत् । ततः कथं सोऽपरतन्त्रोऽपि सन् इहागत्य मां न प्रतिबोधयति । भगवता भणितम्-शृणु, यथा नाम कोऽपि दरिद्रपुरुषः, हीनजातिकुलरूपो व्यवसायं कृत्वा गृहीतकलाकलापो देशान्तरमुपगत्य तत्प्रसादतः कुत्रचित् प्राप्तराज्यः, कृतविविधसुन्दरीपरिग्रहः, महानरेन्द्रपूजितः, संजातानेकसुन्दरापत्यः, महासौख्य सागरावगाढो न स्मरति लज्जापनेयस्य कुकलत्र-पुत्रभाण्डकस्य, एवं चैव ते देवा मनुजत्वमसारं मन्यमानाः, धर्मव्यवसायं कृत्वा गृहीतपरलोककलाकलापाः, सुरालयं प्राप्य पूर्वसुकृतप्रसादतो देवद्धि प्राप्य त्रिदशसुन्दरीपरिकरिताः, महानेकदेवगणपूजिताः, समुत्पन्नानेकरतिनिबन्धनाः, अत्यन्तरतिसागरावगाढा न स्मरन्त्यपि मनुजभावस्य. किमङ्ग पुनरागच्छन्ति ? ततः कथं समनुशासयन्ति ? भणितं च संक्रान्तदिव्यप्रेमाणो विषयप्रसक्ता असमाप्तकर्तव्याः। अनधीनमनुजकार्या नरभवमशुभं नाऽयन्ति सुराः ॥३०॥ लेकर, कुछ समय पालन कर मृत्यु को प्राप्त हो गये। वे आपके मत से निश्चित रूप से देवों में उत्पन्न हुए होंगे। मैं उनका अत्यन्त प्रिय था । वे मुझे धर्म का उपदेश देंगे- ऐसा उन्होंने कहा था। तो वे स्वतन्त्र होते हुए भी, क्यों नहीं यहां आकर मुझे प्रतिबुद्ध करते हैं ?" भगवान् ने कहा-"जैसे कोई दरिद्रपुरुष हीन जाति और कुल के अनुरूप व्यवसाय कर, कलाओं के समूह को प्राप्त कर दूसरे देश को जाकर, कलाओं के कारण उसे कहीं से राज्य प्राप्त हो, बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर बड़े-बड़े राजाओं द्वारा पूजित होने लगे और उसके अनेक सन्ताने हो जाय । (तब) महान् सुख रूपी सागर में लीन होकर वह लज्जा के कारण छोड़ने योग्य उन दीन कलत्र-पुत्रों को याद नहीं करता है । उसी प्रकार वे देव भी मनुष्यपने को असार मानकर, धर्मपुरुषार्थ कर, परलोक की कल्पनाओं के समह को ग्रहण कर स्वर्ग प्राप्त कर तथा पूर्वपूण्य के प्रताप से देवों की ऋद्धि और देवांगनाओं को पाकर, अनेक बड़े-बड़े देवों से पूजित होकर, अनेक प्रकार की रति के कारण उपस्थित होने पर अत्यन्त रतिरूप सागर में लीन होकर, मनुष्यपने को याद भी नहीं करते हैं, आने की तो बात ही क्या ? अतः वे कैसे शिक्षा देंगे? कहा भी है दिव्य प्रेम में रिले-मिले, विषयों में लगे हुए, जिनके कार्य समाप्त नहीं हुए हैं, जिनके अधीन मनुष्य के कार्य नहीं हैं ऐसे देव मनुष्यभव को अशुभ मानकर नहीं आते है ॥३०॥ १. गहियपरलागकलावा-क.गहियकलाकलावा-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001881
Book TitleSamraicch Kaha Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1993
Total Pages516
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size13 MB
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